चंद्रशेखर को ‘आज़ाद’ कर बीजेपी के बुने जाल में फंस गये अखिलेश!
चंद्रशेखर अब आज़ाद होकर चुनाव मैदान में उतरने जा रहे हैं। वह अखिलेश यादव को धोखेबाज कह रहे हैं। महत्वपूर्ण सवाल है कि बगैर कुछ किए ही अखिलेश यादव धोखेबाज कैसे हो गये? चंद्रशेखर आजाद यह भी कह रहे हैं कि अखिलेश यादव को दलितों को साथ लेकर चलना ही नहीं है। वे ऐसा चाहते ही नहीं हैं। यह वही भाषा है जो अखिलेश के लिए बीजेपी बोलना चाहती है। सवाल यह है कि क्या अखिलेश बीजेपी के बुने जाल में फंस गये हैं?
जो भूल अखिलेश यादव से हुई है वह भूल मायावती ने नहीं की। मायावती ने कभी यह अवसर ही आने नहीं दिया कि चंद्रशेखर आजाद उनके साथ राजनीतिक मोल-तोल कर पाते। चंद्रशेखर बहुत पहले से मायावती की सरपरस्ती में राजनीति करने को भी तैयार दिखे थे, लेकिन मायावती ने चंद्रशेखर की सियासत को बहुत पहले भांप लिया था। नज़दीक आने ही नहीं दिया तो दूर जाते कैसे? धोखा देने का आरोप लगाने तक का अवसर मायावती ने नहीं दिया।
धोखा किसने किसको दिया?
धोखा किसने किसको दिया? चंद्रशेखर ने अखिलेश को या फिर अखिलेश ने चंद्रशेखर को? अखिलेश यादव भोले निकले। वास्तव में दलित वोटों के मोह में ही उन्होंने चंद्रशेखर को तवज्जो दी। मगर, चंद्रशेखर को आज़ाद ही रहना था। उन्हें अखिलेश यादव के साथ जुड़ना ही नहीं था। ऐसा लगता है कि यह पूरी पटकथा बीजेपी दरबार से लिखी गयी है और उस पर चंद्रशेखर ने अमल किया है।
दलित वोटों पर पकड़ मजबूत बनाने के लिए चंद्रशेखर आज़ाद या रावण को मायावती के बरक्स खड़ा करने की कोशिश बहुत पहले शुरू की जा चुकी थी। मगर, मायावती ने कभी इस सियासत को आगे बढ़ने नहीं दिया। पर, अब उन्हीं चंद्रशेखर का इस्तेमाल अखिलेश के खिलाफ बहुत सपाट तरीके से किया जा रहा है।
चंद्रशेखर के बहाने दलितों के बीच यह संदेश देने की कोशिश की गयी है कि समाजवादी पार्टी दलितों की जन्मजात दुश्मन है और वह कभी दलितों को दिल से अपने साथ करने को तैयार नहीं है। ऐसा करके बीएसपी के दरकते दलित वोट बैंक का फायदा कहीं समाजवादी पार्टी न ले जाए, इस संभावना को ख़त्म करने का माहौल बनाया गया है।
डबल इंजन की सरकार के लिए नाराज़गी दलितों में भी है मगर दलित वोटरों को बीएसपी कमजोर नज़र आ रही है। ऐसे में उनके लिए समाजवादी पार्टी स्वाभाविक पसंद हो सकती थी। मगर, अखिलेश को दलित विरोधी घोषित कर उस संभावना को खत्म करने की कोशिश हो रही है।
क्या गोरखपुर से लड़ेंगे चंद्रशेखर?
चंद्रशेखर आजाद ने कहा है कि जरूरत पड़ी तो वे योगी आदित्यनाथ के खिलाफ भी गोरखपुर से चुनाव लड़ेंगे। मगर, क्या वे योगी आदित्यनाथ को हराने के लिए चुनाव लड़ेंगे?- यह सवाल महत्वपूर्ण है। स्थानीय समीकरण में योगी विरोधी वोटों के बिखराव को सुनिश्चित करने के लिए चंद्रशेखर आजाद चुनाव लड़ेंगे। इससे योगी की हार नहीं, जीत सुनिश्चित होगी। वास्तव में चंद्रशेखर आजाद की यही भूमिका पूरे उत्तर प्रदेश के संदर्भ में रहने वाली है।
अगर अखिलेश यादव ने चंद्रशेखर आजाद को पहचान लिया होता तो आज वे उस आक्रमण का सामना करने की स्थिति में होते जिसमें उन्हें दलित विरोधी बताया जा रहा है। चंद्रशेखर के पीछे खड़ी सियासी ताकत कौन है? किसके दम पर चंद्रशेखर आजाद 33 सीटों पर चुनाव लड़ने का दंभ दिखा रहे हैं? चंद्रशेखर आजाद अगर एक नेता के रूप में उभरे हैं तो इसके पीछे कौन लोग हैं? चंद्रशेखर के उद्भव से किसे फायदा हो रहा है या हो सकता है?
बीजेपी को मदद करते दिख रहे हैं चंद्रशेखर?
एक ऐसे समय में जब ओबीसी का बीजेपी से मोहभंग हुआ है, बीजेपी दलित वोटों को अपने आमने-सामने के प्रतिद्वंद्वी के बरक्स इकट्ठा नहीं होने देना चाहती। इस रणनीति में चंद्रशेखर बीजेपी के लिए बेहद मुफीद हैं। अगर चंद्रशेखर ने 3 दर्जन सीटों पर समाजवादी पार्टी को रोक लिया तो बीजेपी की रणनीति सफल हो जाती है। बीजेपी को बीएसपी से खतरा कतई नहीं है। जरूरत पड़ने पर बीएसपी सरकार बनाने में उसकी मदद कर दे सकती है। लेकिन, समाजवादी पार्टी को सत्ता से दूर रखना उसकी अहम रणनीति है।
अखिलेश यादव इस मायने में बहुत भोले रहे कि उन्होंने आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह के साथ भी तस्वीरें खिंचा ली और चंद्रशेखर आजाद के साथ भी। दोनों से उनकी बात नहीं बनी। संजय सिंह सियासत के चतुर खिलाड़ी हैं। उन्होंने अंदरखाने की बातचीत को बाहर नहीं किया और इसका फायदा कोई और पार्टी न उठा ले जाए, इसके प्रति भी वे सजग रहे। लेकिन, अगर अखिलेश यादव को यह मालूम था कि आम आदमी पार्टी से गठबंधन का फायदा समाजवादी पार्टी को नहीं है तो संजय सिंह के साथ तस्वीर सार्वजनिक भी नहीं होना चाहिए था। यह भी सियासी भूल ही कही जाएगी।
बिहार के फॉर्मूले पर यूपी में चल रही है बीजेपी?
बिहार में जिस तरह से अपने ही सहयोगी लोकजनशक्ति पार्टी को बीजेपी ने दो फाड़ कर दिया और इसके लिए दलित नेता जीतन राम मांझी का इस्तेमाल किया- उसे भी याद रखना जरूरी है। जीतन राम मांझी को चुनाव के ठीक पहले तेजस्वी यादव खेमे से दूर किया। तेजस्वी के लिए यही संदेश दिया गया कि यादव होने के नाते वे दलितों के साथ सहज नहीं हैं और गठबंधन के लिए भी गंभीर नहीं हैं। निषाद वोटों के लिए ‘सन ऑफ मल्लाह’ कहे जाने वाले मुकेश सहनी को आरजेडी से तोड़कर बीजेपी ने अपने खेमे में जोड़ा था। चुनाव नतीजे बताते हैं कि बीजेपी की रणनीति बहुत सफल रही थी।
अखिलेश यादव ने जिस तरीके से ओम प्रकाश राजभर और उनके इकट्ठा किए गये कुनबे को अपने साथ जोड़ते हुए गैर यादव ओबीसी वोटरों को एकजुट किया, उसके बाद बीजेपी ने सोशल इंजीनियरिंग पर शोध को और अधिक मजबूत किया। अब बीजेपी की नज़र दलित वोटों को बांटने, गैर जाटव वोटों को बीएसपी से अलग करने और कुल मिलाकर समाजवादी पार्टी को दलितों का दुश्मन बताने पर टिक गयी।
किसने किसको दिया धोखा?
बीजेपी की रणनीति अगर समाजवादी पार्टी भांप पाती तो चंद्रशेखर आजाद को पास आने का अवसर न देकर उसे बीजेपी-संघ के एजेंट के रूप में प्रचारित करती जैसा कि बीएसपी करती रही है। ऐसा करने पर चंद्रशेखर में वो कद नहीं आता जो चंद्रशेखर को भाव देने के बाद उनमें आ चुका है।
प्रियंका गांधी ने भी चंद्रशेखर के पास आने की कोशिश दिखलायी थी जिसका फायदा भी चंद्रशेखर को मिला। वास्तव में बीजेपी अगर चंद्रशेखर का राजनीतिक इस्तेमाल करने की सोच रही है तो इसके पीछे वजह चंद्रशेखर को मिला कांग्रेस का साथ ही था। प्रियंका गांधी ने चंद्रशेखर को राजनीतिक हैसियत मजबूत करने में मदद की। आज वे प्रियंका और कांग्रेस से भी दूर हैं। चंद्रशेखर का हर कदम बीजेपी के लिए सत्ता की राह आसान करने वाला दिखता है।