अखिलेश सिर्फ मैनपुरी में ही क्यों घर-घर वोट मांग रहे
यूपी में इस वक्त तीन विधानसभा सीटों पर उपचुनाव हो रहे हैं। ये हैं - मैनपुरी, रामपुर, खतौली। मुख्य मुकाबला बीजेपी और सपा में है। खबरों में मैनपुरी ज्यादा है। लेकिन यह खबरों में इसलिए ज्यादा नहीं है कि मैनपुरी से सपा प्रमुख अखिलेश यादव की पत्नी डिंपल यादव चुनाव लड़ रही हैं। यह खबरों में इसलिए ज्यादा है कि अखिलेश को मैनपुरी विधानसभा क्षेत्र में घर-घर जाकर वोट मांगने पड़ रहे हैं। उन्हें अपने चाचा शिवपाल यादव से बहू को जिताने के लिए मदद मांगनी पड़ी और चाचा शिवपाल ने कुनबे की रक्षा के लिए बहू की मदद की अपील कर डाली।
बाकी दो उपचुनाव है, जहां अखिलेश को घर-घर वोट मांगने जाना नहीं पड़ रहा है और न वो जाना चाहते हैं। वो रामपुर और खतौली हैं। खतौली में हालांकि जयंत चौधरी की पार्टी राष्ट्रीय लोकदल लड़ रही है लेकिन गठबंधन की वजह से वहां जाना तो बनता था। लेकिन मैनपुरी ने अखिलेश को व्यस्त कर रखा है। रामपुर को उन्होंने एक खास रणनीति के तहत वहां के मुसलमानों और आजम खान के भरोसे छोड़ दिया है। पूर्व मंत्री आजम खान पर हेट स्पीच की वजह से लगी रोक के बाद यह सीट खाली हो गई। लेकिन अखिलेश ने आजम खान के खास आसिम रजा को फिर से टिकट दिया है। क्या यह एक तरह से आजम खान की राजनीति और रणनीति को कमजोर करने की नीति नहीं है। आजम खान के परिवार में तमाम लोग ऐसे थे, जिन्हें इस चुनाव में टिकट दिया जा सकता था। इस समय जब बात वजूद की आ गई है तो क्या आजम परिवार के किसी अन्य के लड़ने पर मना कर देते। अगर 2024 तक आजम ने अखिलेश का साथ छोड़ने और बीएसपी, कांग्रेस या बीजेपी में से किसी एक को चुनने का फैसला किया तब सपा का क्या होगा?
अखिलेश यादव उपचुनाव में चुनाव प्रचार को लेकर सेलेक्टिव हो जाते हैं। आजमगढ़ सीट पर जून 2022 में चुनाव हुआ। हालांकि यह सीट मुलायम और अखिलेश की परंपरागत सीट रही है लेकिन लोकसभा उपचुनाव में सपा ने यहां से धर्मेंद्र यादव को मैदान में उतारा। बीजेपी ने यहां से निरहुआ को खड़ा किया। वो आजमगढ़ जो सपा का गढ़ है, वहां अखिलेश पूरे उपचुनाव में एक बार भी रैली करने नहीं पहुंचे। धर्मेंद्र यादव को कदम कदम पर परेशानियों का सामना करना पड़ रहा था लेकिन अखिलेश के पास आजमगढ़ आने का समय नहीं था। आजमगढ़ से उपचुनाव में मायावती ने एक रणनीति के तहत मुस्लिम प्रत्याशी गुड्डू जमाली को खड़ा कर दिया था। उस वक्त जब आजमगढ़ के सपा समर्थक मुस्लिम नेताओं ने अखिलेश के पास संदेश भेजा कि उनका मुस्लिम बेल्ट में दौरा करना जरूरी है तो अखिलेश ने उन संदेशों को नजरन्दाज किया। चुनाव नतीजा आया तो धर्मेंद यादव 8679 वोटों से हार चुके थे।
माई-वाई समीकरणः बीएसपी प्रत्याशी गुड्डू जमाली को 2 लाख 66 हजार 210 वोट मिले। ये सारे वोट मुसलमानों के थे। आजमगढ़ में नाराज मुसलमानों ने सपा को वोट नहीं दिया। मायावती ने आजमगढ़ में आसानी से दो दशक पुराने मुस्लिम-यादव (MY) समीकरण को ध्वस्त कर दिया। सबसे ज्यादा फायदे में बीजेपी रही। वो आसानी से सीट निकाल ले गई। सपा के धर्मेंद्र यादव को तीन लाख से कुछ ज्यादा वोट मिले लेकिन मुस्लिम वोट बीएसपी की तरफ सरक गया। आखिर ऐसा क्या हुआ कि 2019 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश की पार्टी सपा 60 फीसदी वोट सिर्फ मुस्लिम-यादव समीकरण की वजह से पाती है लेकिन उसी सीट पर बाद में हुए उपचुनाव में उस 60 फीसदी वोट शेयर की धज्जियां उड़ जाती हैं।
मुस्लिम वोट सिर्फ अखिलेश की नीतियों की वजह से शिफ्ट हुआ था। इसलिए यह सवाल मैनपुरी चुनाव से उठा कि बात जब कुनबे की हो तो सैफई का यादव खानदान फौरन एक हो जाता है। कुनबे से चाहे कोई चुनाव लड़े। मैनपुरी यादव और मुस्लिम बेल्ट है, क्या अखिलेश को अपने MY समीकरण पर भरोसा नहीं है। आखिर अखिलेश को डिंपल के लिए वोट मांगने घर-घर क्यों जाना पड़ रहा है, दिन भर में चार-चार रैलियां करना पड़ रही हैं। क्यों नहीं अखिलेश यहां MY समीकरण से चुनाव लड़ लेते। यह सवाल अब और शिद्दत से उठेगा और 2024 आते-आते बीएसपी सुप्रीमो मायावती द्वारा MY को नाकाम करने के लिए इस समय बनाए जा रहे मुस्लिम-दलित (DM) समीकरण के नतीजे भी दिखेंगे।
मायावती अपनी पुरानी रणनीति पर धीरे-धीरे लौट रही हैं। हाल ही में उन्होंने सहारनपुर के कद्दावर मुस्लिम नेता इमरान मसूद को बीएसपी में शामिल किया है। उन्होंने पश्चिमी यूपी के मुस्लिम बहुल इलाकों का इंचार्ज बना दिया है। इमरान मसूद अब मुस्लिम बहुल छोटे-छोटे कस्बों में मायावती के DM समीकरण का प्रचार कर रहे हैं।
चाचा को लेकर अखिलेश की रणनीति
पिछले यूपी विधानसभा चुनाव में शिवपाल यादव ने कुल 7 टिकट अखिलेश से मांगे थे। लेकिन अखिलेश ने चाचा को सिर्फ उनकी टिकट थमाते हुए बाकी टिकट काट दिए। शिवपाल ने भारी मन से चुनाव लड़ा। हालांकि उस समय मुलायम सिंह यादव ने हस्तक्षेप करते हुए अखिलेश से उन टिकटों के लिए कहा लेकिन अखिलेश ने उनकी बात भी अनसुनी कर दी। अगर अखिलेश अपर्णा यादव और शिवपाल के बेटे प्रतीक यादव को टिकट दे देते तो सपा पर अखिलेश की पकड़ कमजोर नहीं पड़ जाती लेकिन अखिलेश ने अपने मन की बात सुनी। अब जब मैनपुरी का कुरुक्षेत्र सामने आया तो चाचा की याद आई। अब चाचा के पैर छुए जा रहे हैं और मंच भी साझा किया जा रहा है। उन्हें स्टार प्रचारक भी बनाया जा रहा है।
मुलायम के बाद सपा के आम कार्यकर्ताओं पर शिवपाल की पकड़ मजबूत मानी जाती रही है। अखिलेश जब ऑस्ट्रेलिया में पढ़ाई कर रहे थे तो मुलायम के बाद पार्टी संगठन का काम शिवपाल और रामगोपाल यादव के पास था। फील्ड में शिवपाल ही दिखते थे। अखिलेश को पिछले चुनाव के बाद यह समझ आ गया कि चाचा की जरूरत कहीं न कहीं और कभी न कभी जरूर पड़ेगी। डिंपल के चुनाव जीतने के बाद भतीजे की रणनीति चाचा को लेकर अभी और साफ होगी। लेकिन यह तय है कि दोनों ने एक दूसरे की जरूरत को तमाम विश्लेषण के बाद समझ लिया है।
रामपुर पर अखिलेश की रणनीति
आजम खान जब तक जेल में रहे, अखिलेश यादव ने उनसे मुलाकात नहीं की। लेकिन अखिलेश ने बस एक काम किया कि रामपुर को पूरी तरह आजम खान पर छोड़ दिया। पर, अगर आप यूपी लेवल की पार्टी चला रहे हैं तो आपसे ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती कि आप रामपुर को लेकर राजनीतिक चालें चलें। जून 2022 के रामपुर लोकसभा उपचुनाव में भी अखिलेश ने एक बार रामपुर आकर सपा के लिए वोट नहीं मांगा। आजम जेल में थे। आजम के इन्हीं खास आसिम रजा को लोकसभा उपचुनाव में टिकट भी अखिलेश ने दिया था और टिकट देकर अकेला छोड़ दिया था। यानी रामपुर के मुस्लिम मतदाताओं, आजम खान के शुभचिन्तकों को सौ बार गरज हो तो वो आसिम रजा को वोट दें। सारा वोट बिखर गया। बीजेपी प्रत्याशी घनश्याम लोधी आसानी से रामपुर लोकसभा उपचुनाव में सीट निकाल ले गए। इस सीट पर हार अखिलेश की रणनीतियों का नतीजा थी।और अब फिर जब रामपुर में विधानसभा उपचुनाव की बारी आई तो अखिलेश ने फिर से उन्हीं आसिम रजा को टिकट दे दिया जो अभी चंद महीने पहले लोकसभा हार चुके थे।
रामपुर को लेकर अखिलेश की रणनीति स्पष्ट है। वो कद्दावर आजम खान से छुटकारा चाहते हैं। आजम खान भी रंग दिखाने से पीछे नहीं रहे। आजम के दो खास लोग फसाहत खान उर्फ शानू भाई और चमरौवा के पूर्व विधायक यूसुफ अली बीजेपी में शामिल हो गए हैं। ये दोनों माइग्रेशन बिना आजम की सहमति के नहीं हुए होंगे। इस तरह रामपुर जो आजम और सपा का मजबूत किला था, अब ध्वस्त होने जा रहा है। हालांकि यूसुफ अली के समर्थकों की मानी जाए तो उनके मुताबिक यूसुफ भाई अपने पुराने केस वापस कराने के लिए बीजेपी में गए हैं।