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बीजेपी के मंसूबों पर फिरा पानी, कितना असरदार होगा सपा-रालोद गठजोड़? 

बीजेपी के मंसूबों पर फिरा पानी, कितना असरदार होगा सपा-रालोद गठजोड़? 

क्या कृषि क़ानून वापस लेने के बाद भी बीजेपी को पश्चिमी उत्तर प्रदेश में इसका फ़ायदा नहीं मिलेगा?

कृषि कानूनों की वापसी के एलान के बाद पश्चिम उत्तर प्रदेश में चमत्कार की आस लगाए बैठे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए राष्ट्रीय लोक दल (रालोद) का रवैया निराश कर देने वाला रहा है। कानून वापसी के बाद अंदरखाने रालोद के साथ तालमेल की बातचीत शुरु कर चुकी भाजपा के लिए जयंत चौधरी व सपा मुखिया अखिलेश यादव की मुलाकात और उसके बाद दोनों के उत्साह से भरे ट्वीट दिल तोड़ देने वाले रहे हैं। 

हालांकि अभी दोनों दलों के बीच गठबंधन को औपचारिक स्वरुप नहीं दिया गया है पर सीटों से लेकर चुनाव प्रचार तक बहुत कुछ तय हो गया है। 

खुद रालोद प्रमुख जयंत चौधरी ने कहा कि इसी महीने के आखिर तक गठबंधन का एलान कर दिया जाएगा। रालोद के साथ गठबंधन की आस के परवान न चढ़ने और बदलते घटनाक्रम के बाद भाजपा के लिए पश्चिम उत्तर प्रदेश में चिंता जरुर बढ़ी है। 

भाजपा के बड़े नेताओं का एक धड़ा तो यहां तक कह रहा है कि अगर कुछ सकारात्मक नहीं होना था तो साल भर तक लटकाने के बाद कृषि कानून वापस ही क्यों लिए गए हैं।

भाजपा को थी उम्मीद

कृषि कानून वापस लेने के बाद भाजपा को पश्चिम उत्तर प्रदेश में समीकरण बदलने और सब कुछ पहले जैसा बेहतर हो जाने की उम्मीद बंधी थी। रालोद मुखिया जयंत चौधरी को साधा जा रहा था और कहा जाता है कि उनसे भाजपा के प्रमुख रणनीतिकार अमित शाह की एक मुलाकात भी हो चुकी थी। भाजपा के ही कई नेता अपने अपने चैनल से भी रालोद से तालमेल की संभावनाएं तलाशने में जुटे थे। 

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पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह की तर्ज पर पश्चिम यूपी में भी भाजपा को जाटों को साधने की आस थी और कृषि कानून की वापसी इसकी राह आसान करने वाली दिख रही थी। पश्चिम यूपी में रालोद पहले भी भाजपा के साथ रह चुकी है और एक बार फिर से साथ आने पर पार्टी के लिए बीते कई सालों से आजमाया जा चुका जाट सहित अन्य जातियों का समीकरण बन जाने की उसे उम्मीद थी।

किसानों ने दिखाया दम  

कृषि कानूनों की वापसी के बाद लखनऊ में हुई महापंचायत में पश्चिम के किसानों की बड़ी तादाद में शिरकत व नेताओं के तीखे तेवर ने मुश्किलें पैदा कर दी थीं। बताया जाता है पंचायत में जिस तरह से किसान नेताओं ने आंदोलन को जारी रखने और सरकार के सामने नई चुनौतियां पेश करने का एलान किया उसने रालोद को भी सरकार के विरोध में ही बने रहने को मजबूर कर दिया। 

सपा-रालोद में गतिरोध खत्म

जहां पहले सपा और रालोद के बीच सीटों की मांग को लेकर गतिरोध नजर आ रहा था और बनती हुई बात बार-बार बिगड़ रही थी वहीं इस बार सबकुछ आसानी से तय होता दिखा। पहले रालोद की पश्चिम यूपी में कम से कम 60 सीटों की मांग थी लेकिन सपा उसे महज 30 सीटें देने पर राजी थी। 

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रालोद को 36 सीटें

मंगलवार को अखिलेश और जयंत की मुलाकात के बाद साफ हो गया कि रालोद 36 सीटों पर ही मान जाएगी। इन 36 सीटों में से भी 6 सीटों पर सपा के प्रत्याशी रालोद के सिंबल पर चुनाव लड़ेंगे। इससे पहले 2018 के मुजफ्फरनगर लोकसभा के उपचुनाव में यह प्रयोग हो चुका है जब सपा प्रत्याशी तब्बसुम हसन ने रालोद के हैंडपंप चुनाव निशान पर लड़ा था और सफलता हासिल की थी। 

दोनों नेताओं की बातचीत में सपा ने रालोद को पूर्वी यूपी में भी कम से कम दो सीटें देने का प्रस्ताव दिया है जिसे जयंत चौधरी ने खुशी-खुशी मान लिया है।

पश्चिम में भाजपा की मुश्किलें

राजनैतिक विश्लेषक बताते हैं कि रालोद-सपा के गठजोड़ पर मुहर लगने के बाद साफ है कि भाजपा के लिए पश्चिम यूपी में कुछ भी आसान नहीं हुआ है। कृषि कानूनों की वापसी का रत्ती भर लाभ भी भाजपा को मिलता नहीं दिख रहा है। विश्लेषक आशीष अवस्थी बताते हैं कि जाटों के दिमाग से किसी भी बात को आसानी से निकाल पाना संभव नहीं है। 

मुजफ्फरनगर में 2013 के दंगों के बाद जाट रालोद छोड़ कर भाजपा की तरफ गए थे तो फिर तीन चुनाव 2019 के लोकसभा व 2014 व 2017 के विधानसभा चुनाव में उनकी वापसी नहीं हुई।

रालोद के तत्कालीन मुखिया अजित सिंह और बेटे जयंत चौधरी तक चुनाव हारे। अब किसान आंदोलन के बाद वो फिर से रालोद की ओर कुछ हद तक लौटे हैं और मुसलमानों के साथ उनका परंपरागत गठजोड़ फिर से कायम हुआ है तो यह आसानी से खत्म नहीं होने वाला है।

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