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“अजातशत्रु” का मंचन: मीडिया, पैसा, राजनीति और आम आदमी का संकट
राजनीति के कई रंग हैं। वो आम आदमी के बेहतर जीवन के लिए संघर्ष करती दिखाई दे सकती है। लेकिन सत्ता और संपति पर कब्जा के लिए आम आदमी की जिंदगी को संकट में डालने से भी उसे परहेज नहीं हो सकता है। मीडिया, पूंजीपति और राजनेताओं का गठजोड़ अपने फायदे के लिए जनता को किस तरह गुमराह करता है, उसका एक बड़ा उदाहरण नार्वे के लेखक हेनरिक इब्सेन के नाटक “ऐन एनिमी ऑफ़ द पीपल” में मिलता है। मानववाद और यथार्थवाद के जनक माने जाने वाले हेनरिक ने ये नाटक 1882 में लिखा था।
क़रीब डेढ़ सौ साल बाद भी ये नाटक उतना ही प्रासंगिक है, जितना अठारहवीं सदी के यूरोप के लिए प्रासंगिक था। मशहूर गायिका इला अरुण ने इस नाटक के भारतीय रूपांतर, “अजातशत्रु” को आज के भारत के लिए भी उतना ही प्रासंगिक बना दिया है। जाने माने निर्देशक के के रैना ने इसे भारत रंग महोत्सव में प्रस्तुत किया।
सच की हार!
नाटक का कथानक दो भाइयों के बीच संघर्ष के इर्द गिर्द बुना गया है। बड़ा भाई नेता और व्यवसायी है और हर क़ीमत पर अपनी सत्ता तथा मुनाफा बचाने के लिए षड्यंत्र करता है। छोटा भाई डॉक्टर है और आम आदमी के लिए संघर्ष करता है। धार्मिक आस्था का प्रतीक एक कुंड (तालाब) का पानी चमड़े के एक कारखाना का गंदा पानी मिलने के कारण प्रदूषित हो गया है। इस कुंड के आसपास एक मेला लगता है। छोटा भाई जो डॉक्टर और मुख्य चिकित्सा अधिकारी है, कुंड की सफाई तक बंद करने और मेला रोकने के लिए सत्ता, यानी अपने बड़े भाई से लड़ता है।
मेला से मुनाफा खत्म हो जाने के डर से बड़ा भाई मेला और कुंड का पानी रोकने के लिए तैयार नहीं होता है। नगर के व्यापारी बड़े भाई के साथ हो जाते हैं। शहर के अखबार पर दबाव डाल कर कुंड के गंदे पानी की ख़बर छापने से रोक दिया जाता है। राजनीति, पूंजीपति और मीडिया का गठजोड़ आम जनता को धार्मिक आस्था के नाम पर छोटे भाई के ख़िलाफ़ कर देता है और उसकी हत्या करा दी जाती है। इला अरुण ने इस कुंड को हिंदू देवता ब्रह्मा से जोड़ कर इसे पूर्णतः भारतीय बना दिया है। आज के भारत में नेता और मुनाफाखोर, आम लोगों की धार्मिक आस्था का जिस तरह दुरुपयोग कर रहे हैं, उसकी पूरी झलक इस नाटक में मिल जाती है।
दमदार प्रस्तुति
के के रैना ने बड़े सधे हुए अंदाज में इस नाटक को पेश किया। मुख्य भूमिकाओं में अभिषेक पांडे, विजय कश्यप, गुनीत सिंह, अदिति शर्मा और इशिता अरुण ने सहज अभिनय और संवाद के ज़रिए नाटक को एक नयी पहचान दे दी। के के रैना और इला अरुण बहुत छोटी लेकिन प्रभावशाली भूमिकाओं में नजर आए।
पार्श्व संगीत में छापा खाना और टाइप राइटर की आवाज का सटीक इस्तेमाल किया गया। रूपांतर के बाद यह नाटक आज के भारत के प्रतिनिधि की तरह दिखाई देता है। आज के कई नेता लोगों की धार्मिक आस्थाओं से खुलकर खेल रहे हैं। व्यापारी को अंध भक्ति में मुनाफा दिखाई देता है। मीडिया पर बड़े पूंजीपतियों का अधिकार होता जा रहा है। विज्ञापन के ज़रिए सरकार और पूंजीपति दोनों ही मीडिया पर नियंत्रण करने लगे हैं। लूट के खेल में शामिल गठजोड़ जमकर मुनाफा कमा रहा है। अंध भक्ति में जनता छली जा रही है। नाम और चेहरे बदल जाते हैं, लेकिन धर्म के नाम पर कारोबार लगातार चलता रहता है।