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क्या 2030 तक अपनी गलतियों से सीखने लगेगी एआई?

क्या 2030 तक अपनी गलतियों से सीखने लगेगी एआई?

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) के 2030 तक आर्टिफिशियल जनरल इंटेलिजेंस (AGI) में विकसित होने पर बात हो रही है। AI ने तेजी से प्रगति देखी है। वरिष्ठ पत्रकार चंद्रभूषण बता रहे हैं कि वर्तमान AI मॉडल जैसे कि लार्ज लैंग्वेज मॉडल (LLM) की सीमाओं, विशाल डेटासेट पर उनकी निर्भरता और सही धारणा के जरिए किस तरह एआई के विकास पर काम चल रहा है। 

खोजों की टाइमलाइन को लेकर पूर्वानुमान लगाने से वैज्ञानिक अभी बचने लगे हैं। कारण यह कि न्यूक्लियर फ्यूजन और ‘रूम टेंपरेचर सुपरकंडक्टिविटी’ जैसी कुछ पूर्वघोषित परियोजनाएं दिनोंदिन आगे ही टलती जा रही हैं जबकि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसे कुछेक क्षेत्रों में तरक्की की रफ्तार अचानक तेज हो गई है। लेकिन अपनी बात कट जाने की शर्मिंदगी जैसी समस्याएं वास्तविक बुद्धि से जुड़ी हैं। कृत्रिम बुद्धि के साथ ऐसी कोई समस्या नहीं है। यही वजह है कि डीपमाइंड, गूगल की सबसे ताकतवर एआई ने हाल में 145 पेज के अपने एक शोधपत्र में भविष्यवाणी की है कि 2030 आते-आते आर्टिफिशियल जनरल इंटेलिजेंस का कोई न कोई रूप अस्तित्व में आ जाएगा। 

आर्टिफिशियल जनरल इंटेलिजेंस (एजीआई), यानी एआई का वह रूप, जिसमें बोध (परसेप्शन) का गुण हो और जिसमें अपनी गलतियों से सीखने की क्षमता मौजूद हो। ये दोनों बातें बहुत सरल लगती हैं। गिर-गिरकर चलना सीख लेने वाले छोटे-छोटे बच्चों से लेकर अपने माहौल को समझ कर सर्वाइवल के लिए एक ही गलती बार-बार न करने की सलाहियत कीड़ों-मकोड़ों तक में मौजूद होती है। 

लेकिन आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस में दूसरी अपार क्षमताएं मौजूद होने के बावजूद ये दोनों गुण या तो सिरे से नहीं होते, या बहुत थोड़ी मात्रा में मौजूद होते हैं। जैसे, किसी को लग सकता है कि चैटजीपीटी को उसके किसी गलत जवाब पर टोका जाए तो माफी मांगकर वह सही जवाब भी ढूंढ लाता है। इस प्रक्रिया के साथ कुछ बड़ी समस्याएं हैं, जिनपर आगे बात होगी। फिर भी यह एजीआई के रास्ते में है।

सैद्धांतिक रूप से एआई के तीन चरणों की कल्पना की गई है। आर्टिफिशियल नैरो इंडेलिजेंस (एएनआई), आर्टिफिशियल जनरल इंटेलिजेंस (एजीआई), और आर्टिफिशियल सुपर इंटेलिजेंस (एएसआई)। अभी जितने भी तरह के एआई के बारे में हम जानते हैं, वह सब एएनआई के स्तर की ही हैं। इसमें कंप्यूटर को एक बड़े डेटाबेस में कोई पैटर्न पकड़ने का काम सिखाया जाता है।

भीड़ में एक चेहरा पहचानने से लेकर उंगली के निशान से हाजिरी लगाने तक, या आवाज पहचान कर कोई गाना बजा देने से लेकर सिनेमा या हवाई जहाज का टिकट बुक करने तक सारे काम इसी श्रेणी में आते हैं। लार्ज लैंग्वेज मॉडल (एलएलएम) अलबत्ता एएनआई में ही थोड़ा आगे बढ़ी हुई चीज है, जिसने जेमिनी, कोपायलट और मेटाएआई जैसे अपने प्रॉडक्ट्स से इस क्षेत्र में असाधारण सनसनी पैदा की है। 

इसमें शब्दों के बहुत बड़े डेटाबेस में पैटर्न पकड़ने के लिए आर्टिफिशियल न्यूरल नेटवर्क का इस्तेमाल किया जाता है। शुरू में यह सिर्फ शब्दों के आगे शब्द जोड़कर कुछ आमफहम अभिव्यक्तियों की रचना करने की कसरत हुआ करती थ। लेकिन 2015 में उभरी कंपनी ओपेनएआई की कोशिशों से यह तकनीक अभी उच्च स्तरीय रिसर्च तक में सहायक सिद्ध होने लगी है।

आगे दुनिया की कई नई-पुरानी कंपनियों का प्रवेश इस क्षेत्र में हुआ और अभी न केवल विविध कलारूपों में इसका दखल देखने को मिल रहा है, बल्कि विज्ञान की लगभग हर शाखा की रफ्तार इसकी मदद से बहुत बढ़ गई है। कंप्यूटर वैज्ञानिकों के बीच बहस है कि क्या एलएलएम को एजीआई का ही शुरुआती रूप मान लिया जाना चाहिए? कुछ वैज्ञानिक इस राय को सिरे से खारिज कर रहे हैं और उनकी दलील एक ही है।

कोई बच्चा बड़ा होने के लिए, जिंदगी का सही-गलत समझने के लिए, दुनिया की सामान्य समझदारी हासिल करने के लिए कदम-कदम पर छोटी-बड़ी ठोकरें खाने का रास्ता अपनाता है। 17 लाख करोड़ सूचनाओं का सहारा लेने की तो वह कल्पना भी नहीं करता, जो अभी से एक पीढ़ी पहले वाले चैटजीपीटी 3.5 का डेटाबेस हुआ करता था! न्यूरॉन कोशिकाओं की तादाद भी किसी प्रौढ़ इंसानी दिमाग में इसके हजारवें हिस्से जितनी ही हुआ करती है। 

 - Satya Hindi

इस लेख के लिए एआई से यह फोटो सत्य हिन्दी ने तैयार किया है।

जाहिर है, एलएलएम अपने परिणाम में भले ही इंसानी अक्ल जैसा जान पड़ता हो, लेकिन अपनी कार्यप्रणाली में वह सामान्य बुद्धि, जनरल इंटेलिजेंस से कमतर है। अपनी गलतियां वह आम तौर पर दुरुस्त कर ही लेता है, लेकिन इसके लिए उसको एक रास्ता छोड़कर दूसरा रास्ता पकड़ते हुए डेटाबेस में और ज्यादा गहराई तक घुसना होता है। एजीआई की तरफ ऐसे कदमताल के कुछ अलग खतरे भी हैं। 

लार्ज लैंग्वेज मॉडल के कई प्रॉडक्ट आपसी होड़ में उतरे हुए हैं। इसमें आगे चलकर एजीआई का कोई ऐसा मॉडल भी कारगर हो सकता है, जो किसी सिनेमा या एयरलाइंस के टिकट का जुगाड़ करने के लिए बोलने पर किसी और व्यक्ति को पहले से मिला हुआ टिकट काटकर उसकी जगह आपका नाम डलवा दे। मामले का निपटारा जब होगा तब होगा, लेकिन व्यवस्था उसी पल टूट जाएगी।

इसलिए आर्टिफिशियल जनरल इंटेलिजेंस के लिए कोई ऐसी राह पकड़ना ज्यादा बेहतर रहेगा, जिसमें स्थिति को सीधे समझने का गुण हो। इसके लिए बहुत ज्यादा डेटाबेस उसे न खंगालना पड़े। और अपनी गलतियां सुधारने तथा उनसे सीख लेने की बात उसकी प्रकृति में ही हो। इसके लिए हर बार इंसानी हस्तक्षेप की जरूरत उसको न पड़े।

जाहिर है, इस तरह के किसी एजीआई की भविष्यवाणी गूगल डीपमाइंड ने नहीं की है। उसका आकलन एलएलएम के जारी विकास पर ही टिका है और उसके पेपर में इस तरह बन रही एजीआई के खतरे भी गिनाए गए हैं। लेकिन एलएलएम का एक रास्ता क्वांटम कंप्यूटर्स से भी होकर भी जाता है और उससे एजीआई की शक्ल बदल सकती है। 

हम जानते हैं कि क्वांटम कंप्यूटर्स के काम करने का तरीका अलग होता है। उनमें इंसानी दिमाग की तरह एक समस्या को एक साथ कई दिशाओं से टैकल करने की क्षमता मौजूद होती है। बहुत बड़े डेटाबेस को मथने पर आए गलत नतीजे को छोड़कर सही नतीजे की ओर जाने के बजाय यह सीधे पॉइंट पर आने का तरीका ढूंढ सकता है।

ऊपर हमने एआई के जिन तीन चरणों की बात की थी, उनमें एएनआई यानी आर्टिफिशियल नैरो इंटेलिजेंस के करिश्मे हम अभी देख रहे हैं और आगे भी देखेंगे। दूसरे, यानी आर्टिफिशियल जनरल इंटेलिजेंस की तरफ हम तेजी से बढ़ रहे हैं लेकिन उसके कोर्स करेक्शन की जरूरत अभी शिद्दत से महसूस की जा रही है। इसका एक खाका गूगल डीपमाइंड ने अपने रिसर्च पेपर में खींच रखा है। तीसरा, यानी आर्टिफिशियल सुपर इंटेलिजेंस अभी पूरी तरह कल्पना के दायरे में है लेकिन इसे एक आदर्श बुद्धि की तरह देखा जा रहा है, जो इंसानी मेधा से ऊपर की चीज हो।

इसके बारे में कई उपन्यास आ चुके हैं और चर्चित इजराइली बुद्धिजीवी युवाल नोआ हरारी अपनी किताब ‘होमो डिअस’ में इसे आगे रखकर मानवजाति के लिए एक बड़ा निष्कर्ष भी निकाल चुके हैं। कंप्यूटर साइंटिस्ट इसको कम से कम एक सदी आगे की चीज बता रहे हैं, लेकिन अगले दस वर्षों में क्वांटम कंप्यूटर्स का इस्तेमाल न्यूरल नेटवर्क में होने के साथ इसकी कुछ झलक जरूर मिलने लगेगी। 

लार्ज लैंग्वेज मॉडल की अबतक की उपलब्धियां बताती हैं कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के क्षेत्र में होने वाले कामों का स्वरूप पैदल चलने वाला न होकर छलांगें भरने वाला है। आर्टिफिशियल सुपर इंटेलिजेंस बनाने के लिए कोई कंपनी या सरकार पूंजी शायद न लगाना चाहे लेकिन एजीआई की ओर दुनिया खुद ही बढ़ रही है और यह गति किसी दिन इसको एएसआई तक भी पहुंचा देगी।

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