किसानों से मुँह फेरे बैठी दिल्ली ‘महाभारत’ की भूमिका रच रही है!
अरक्षितारं हर्तारं विलोप्तारमनायकम् ।
तं वै राजकलिं हन्युः प्रजाः सन्नहा निर्घृणम्॥
अर्थात( जो प्रजा की रक्षा नहीं करता, सिर्फ़ उसके धन को लूटता-खसोटता रहता है तथा जिसके पास कोई सुयोग्य मंत्री नहीं है, वह निर्दयी राजा कलियुग के समान है। प्रजा को चाहिए कि ऐसे राजा को बाँधकर मार डाले।)
अहं वो रक्षितेत्युक्त्वा यो न रक्षति भूमिपः ।
स संहत्य निहंतव्यः श्वेव सोन्मादः आतुरः ॥
अर्थात(जो राजा प्रजा से यह कह कर कि ‘मैं तुम लोगों का रक्षक हूँ’, फिर उनकी रक्षा नहीं करता, वह पागल कुत्ते की तरह मार डालने योग्य है।)
(अनुवाद, पेज 540, अनुशासन पर्व, संक्षिप्त महाभारत, द्वितीय खंड, गीताप्रेस, गोरखपुर से)
महाभारत में भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को दिये गये उपदेशों के क्रम में आये इन दोनों श्लोकों के अनुसार किसी शासक को सज़ा देना द्वापर युग की सामंती व्यवस्था में सही रहा होगा पर लोकतांत्रिक व्यवस्था में पूरी तरह अनुचित और अकल्पनीय है। लेकिन धर्म और धर्मशास्त्रों के विपुल कोलाहल से भरे इस युग में इनके ज़रिए ये तो समझा ही जा सकता है कि प्रजा का पोषण और रक्षा करना राजा का ‘धर्म’ है। अगर शासन-व्यवस्था इस धर्म का पालन नहीं करती तो जनता का आक्रोशित होना और ‘युग-सम्मत’ सज़ा देना पूरी तरह ‘धर्म-सम्मत’ है।
अफ़सोस कि अपने अथक परिश्रम से खाद्यान्न के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाने वाले किसानों और मौजूदा केंद्र सरकार के रिश्तों के बीच इसी आक्रोश की रस्सी तनी है। किसान इस नतीजे पर पहुँच गये हैं कि इस सरकार में उनकी सुनवाई नहीं है और सरकार अपने हर क़दम से उनकी आशंकाओं को सही साबित कर रही है।
ये संयोग नहीं है कि वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने जिस संसद में सालाना बजट पेश करते हुए कृषि उत्पादकता को विकसित भारत की प्राथमिकताओं में पहले स्थान पर रखा, उसी संसद में दूसरे दिन किसानों के प्रतिनिधियों का प्रवेश वर्जित कर दिया गया। ये किसान नेता न संसद की कार्यवाही बाधित करने गये थे और न ही उनका इरादा संसद का घेराव करना था। सरकार या किसी मंत्री से भी उन्हें कोई काम नहीं था।
वे तो बस लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गाँधी के बुलावे पर उनके दफ़्तर जाना चाहते थे। यह कोई असामान्य बात नहीं है। देश-विदेश के तमाम प्रतिनिधिमंडल उचित प्रक्रियाओं से गुज़रकर संसद परिसर में रोज़ ही प्रवेश करते हैं। लेकिन सुरक्षाकर्मियों ने किसानों को संसद में प्रवेश नहीं करने दिया। ज़ाहिर है, इसका आदेश उन्हें ‘ऊपर' से प्राप्त हुआ था।
वैसे तो लोकसभा का परिसर लोकसभाध्यक्ष के अधीन है लेकिन मौजूदा हालात को देखते हुए शायद ही कोई मानेगा कि किसानों को संसद में प्रवेश करने से रोकने के पीछे सरकार नहीं थी। ये रुख़ वाक़ई आश्चर्यजनक था ख़ासतौर पर जब राहुल गाँधी से मिलने गये किसान नेताओं की तादाद महज़ 12 थी।
राहुल गाँधी ने भी हैरानी जतायी और मीडिया को सलाह दी कि वह प्रधानमंत्री से इसका कारण पूछे। ज़ाहिर है मामला तूल पकड़ने लगा। आख़िरकार किसान नेताओं को संसद परिसर में प्रवेश करने की इजाज़त दी गयी। एक तरह से देखा जाये तो राहुल ने संसद के दरवाज़े किसानों के लिए खुलवा दिये।
“
किसानों को समझ में आ गया है कि इस सरकार से किसी भी क़िस्म की उम्मीद करना बेकार है।
एसएसपी की लीगल गारंटी के मामले में उन्होंने पूरी उम्मीद विपक्ष के नेता राहुल गाँधी से जोड़ ली है। कांग्रेस ने एसएसपी की लीगल गारंटी को लोकसभा चुनाव को लेकर जारी अपने ‘न्याय पत्र’ का हिस्सा बनाया था। पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, तेलंगाना, तमिलनाडु और कर्नाटक के किसानों के प्रतिनिधिमंडल से मुलाक़ात के बाद राहुल ने सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म एक्स पर लिखा- “MSP की कानूनी गारंटी किसानों का हक़ है। INDIA ये हक़ उनको दिला कर रहेगा।”
किसानों की समस्या यही नहीं है कि सरकार उनकी उम्मीदें तोड़ रही है, वे देश की न्यायिक व्यवस्था से भी नाउम्मीद हो रहे हैं। उन्हें उम्मीद थी कि सुप्रीम कोर्ट हरियाणा में शंभू बॉर्डर खोलने के पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट के फ़ैसले को बरक़रार रखेगा। अपनी तमाम माँगों को लेकर किसान वहाँ 13 फ़रवरी से धरना दे रहे हैं।
पुलिस ने बार्डर सील करके किसानों को आगे बढ़ने से रोक दिया था। सड़क पर गाड़ी गयी कीलें और बैरीकेड लोकतंत्र का माखौल बना रही थीं। हाईकोर्ट ने इस पर नाराज़गी जताते हुए 24 जुलाई तक रास्ता खोलने का निर्देश दिया था लेकिन क़ानून व्यवस्था बिगड़ने की दुहाई देते हुए हरियाणा सरकार सुप्रीम कोर्ट चली आयी। सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट से उलट 24 जुलाई को शंभू बार्डर पर यथास्थिति बनाये रखने का आदेश दिया। साथ ही किसानों की माँगों को लेकर एक कमेटी बनाने का निर्देश भी दिया जो सभी हितधारकों से बात करके व्यावहारिक समाधान निकाले।
हैरानी की बात ये है कि सुप्रीम कोर्ट ने इस मूल सवाल पर ध्यान नहीं दिया कि देश के किसान, अपनी माँगे लेकर देश की राजधानी क्यों नहीं आ सकते? क्या किसानों को उनके नागरिक और मानवाधिकारों से वंचित कर दिया गया है। एक ज़माने में दिल्ली में इंडिया गेट के पास बोट क्लब मैदान में किसानों की बड़ी-बड़ी रैली होती थी लेकिन मोदी राज में जंतर-मंतर पर बैठना भी मुहाल हो चला है। क्या सुप्रीम कोर्ट के लिए यह वाक़ई कोई मुद्दा नहीं है?
धरना-प्रदर्शन और शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन लोकतंत्र की अभिव्यक्तियाँ हैं। ख़ुद बीजेपी इन्हीं रास्तों से एक बड़ी राजनीतिक शक्ति बनी लेकिन अब प्रधानमंत्री के लिए ऐसा करने वाले ‘आंदोलनजीवी’ हैं। कई बार तो इन्हें ‘देशद्रोही' सरीखा बताने की कोशिश भी होती है। आंदोलनकारी किसानों के साथ भी ऐसा ही हुआ है। बीजेपी की ट्रोल सेना की ओर से पंजाब के किसान आंदोलनकारियों को तो ‘खालिस्तानी’ बताने का अभियान ही चला दिया गया था।
किसानों के प्रति उपेक्षा और विरोध का यह भाव देश पर भारी पड़ सकता है। मोदी सरकार द्वारा पेश किये गये आर्थिक सर्वेक्षण (2023-2024) में माना गया है कि औद्योगिक विकास के ज़रिए कृषि कार्यों में लगी बड़ी आबादी को सर्विस सेक्टर में ले जाना फ़िलहाल संभव नहीं है। सर्वे में स्वीकार किया गया है कि कृषि क्षेत्र में भारत का ग्रोथ इंजन बनने की क्षमता है। दिलचस्प बात है कि आर्थिक सर्वे में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के महत्व को स्वीकार किया गया है लेकिन इसकी लीगल गारंटी की माँग पर वह कान देने को तैयार नहीं है।
हक़ीक़त ये है कि देश के 89.4 फ़ीसदी किसानों की जोत दो हेक्टेयर से कम हो चली है। कृषि लागत में लगातार बढ़ोतरी ने उनकी कमर तोड़ दी है और प्रधानमंत्री मोदी के किसानों की आय को दोगुना करने का वादा चुटकुला साबित हुआ है। हद तो ये है कि इस बार कृषि क्षेत्र पर बजट का महज़ 3.15 फ़ीसदी आवंटित हुआ है जबकि मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के पहले बजट में यह आँकड़ा 5.44 फ़ीसदी था। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कृषि अनुसंधान और प्राकृतिक खेती को लेकर की गयी घोषणाओं पर अमल की गुंजाइश कितनी कम होगी।
एमएसपी की लीगल गारंटी किसानों के अस्तित्व का सवाल है। महँगे उर्वरक, बीज और डीज़ल पर निर्भरता ने कृषि लागत को काफ़ी बढ़ा दिया है। खेती को लाभप्रद तभी बनाया जा सकता है जब उपज की उचित मूल्य पर ख़रीद की क़ानूनी गारंटी हो।
1967 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने न्यूनतम समर्थन मूल्य का सिद्धांत लागू करके हरित क्रांति के लिए बड़ा आधार तैयार किया था। तब खाद और बीज पर किसान आत्मनिर्भर थे और खेती में बैलों का ज़्यादा प्रयोग होता था जबकि आज की स्थिति उलट है।
आज नहीं तो कल, किसान अपनी माँगों को लेकर दिल्ली ज़रूर आयेंगे। सुप्रीम कोर्ट भी बहुत दिनों तक लोकतांत्रिक विरोध की इस माँग को दरकिनार नहीं कर पायेगा। अभी भी मौक़ा है कि मोदी सरकार इस माँग को स्वीकार कर ले और भारतीय कृषि के विकास को ऐतिहासिक मोड़ देना का श्रेय अपने नाम कर ले।
मोदी सरकार को भूलना नहीं चाहिए कि पाँडवों को पाँच गाँव भी न देने की ज़िद में कौरव हस्तिनापुर गँवा बैठे थे। ‘अरक्षित’ महसूस कर रहे किसानों को युधिष्ठिर को दी गयी भीष्म की चेतावनी का भी भान है। उनका ग़ुस्सा एक नये महाभारत का कारण बन सकता है। इसके लिए दिल्ली ही कुरुक्षेत्र का मैदान बने, ये ज़रूरी नहीं है। किसानों के आक्रोश से तप रहे देश भर के खेत-खलिहान इस भूमिका में आ सकते हैं। संयुक्त किसान मोर्चा की ओर से गाँव-गाँव केंद्रीय बजट की प्रतियाँ फूँकने का ऐलान इसी का संकेत है!
(लेखक कांग्रेस से जुड़े हुए हैं)