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एजी नूरानी की याद में! वह चलता-फिरता इनसाइक्लोपीडिया थे

एजी नूरानी की याद में! वह चलता-फिरता इनसाइक्लोपीडिया थे

एजी नूरानी का लंबी बीमारी के बाद 29 अगस्त, 2024 को मुंबई में निधन हो गया। पढ़िए, उनके साथ काफी समय बिताने वाले क़ुरबानी अली उनको कैसे याद करते हैं।

मित्र, दार्शनिक और मार्गदर्शक - ये वे शब्द हैं जो मेरे लिए महान नूरानी साहब का सटीक वर्णन करते हैं। 2019 में प्रकाशित अपनी आखिरी किताब, 'द आरएसएस: ए मेनस टू इंडिया' पर हस्ताक्षर करते हुए उन्होंने मेरे लिए लिखा, "मेरे अच्छे दोस्त क़ुरबान अली के लिए, बहुत ही आदर के साथ, एजी नूरानी, 2 अप्रैल 2019।"

इस किताब की भूमिका में उन्होंने लिखा कि "इस किताब को लिखने के लिए मैं बहुत सारे अपने  दोस्तों का आभारी हूँ ख़ासकर सांसद असदुद्दीन औवेसी, एस. इफ्तिखार गिलानी, राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख डीएनए, एक अनुभवी पत्रकार और प्रतिबद्ध समाजवादी क़ुरबान अली, और एसएसीएचआर के कार्यकारी निदेशक और मानवाधिकार कार्यकर्त्ता रवि नायर।"

नूरानी साहब द्वारा आरएसएस पर लिखी गई यह पुस्तक भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, पहले गवर्नर-जनरल सी. राजगोपालाचारी, पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आज़ाद और एम.ए.अंसारी को समर्पित है, जो उस हिंदुस्तान में यक़ीन रखते थे और उसके लिए समर्पित थे जिसके बारे में शायर रघुपति सहाय 'फ़िराक़' गोरखपुरी ने अपनी अमर रचना में लिखा है कि 

"सर-ज़मीन-ए-हिन्द पर अक़वाम-ए-आलम के 'फ़िराक़', क़ाफ़िले बसते गए हिन्दोस्ताँ बनता गया"

(ऐ फ़िराक़, हिन्दुस्तान की धरती पर  दुनिया भर से कारवां आते रहे, और ऐसे ही हिंदुस्तान बसता गया)।

इस पुस्तक की शुरुआत में डॉ. बी.आर. आंबेडकर का एक बहुत ही महत्वपूर्ण उद्धरण दिया गया है जो आज की राजनीतिक स्थिति पर बहुत ही सटीक कमेंट है कि  'अगर हिंदू राज एक सच्चाई बन जाता है, तो इसमें कोई संदेह नहीं, कि यह इस देश के लिए सबसे बड़ी आपदा होगी...  हिंदू राज को किसी भी क़ीमत पर रोका जाना चाहिए।' (पाकिस्तान या भारत का विभाजन, 1946, पृष्ठ 354- 5).

आरएसएस पर इस महत्वपूर्ण किताब में उन्होंने 1990 में तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष लालकृष्ण आडवाणी के साथ मेरी एक बातचीत को भी उद्धृत किया है जो 'संडे ऑब्ज़र्वर' साप्ताहिक में प्रकाशित हुई थी। वे लिखते हैं:

"आरएसएस ने आडवाणी को टकराव के रास्ते पर खड़ा कर दिया। भोपाल में भाजपा विधायकों का तीन दिवसीय अध्ययन शिविर आयोजित किया गया था, जिसका उद्घाटन (लालकृष्ण आडवाणी ने) उन्होंने 14 सितंबर 1990 को राष्ट्रीय मोर्चा सरकार पर हमले के साथ किया था। एक अनुभवी संवाददाता, क़ुरबान अली ने उनसे पूछा कि 'क्या उनपर आरएसएस की ओर से वी.पी.सिंह सरकार से समर्थन वापस लेने का दबाव है? आडवाणी ने मुद्दे की मुनासिबत को देखा और इस बात से इनकार किया कि आरएसएस ने उन पर कोई दबाव डाला है, लेकिन उन्होंने साफ़ कहा कि, 'निश्चित रूप से उनके कार्यकर्ता तो इसके लिए दबाव डालते ही हैं’।” (संडे ऑब्जर्वर, 23, सितंबर 1990) पृ.241. 

कानून के दिग्गजों में से एक, संविधान और समकालीन इतिहास के विशेषज्ञ और एक विपुल लेखक, एजी नूरानी साहब ने भरपूर जीवन जिया और लंबी बीमारी के बाद 29 अगस्त, 2024 को दोपहर 3:20 बजे मुंबई में उनके निवास पर उनका निधन हो गया। 

वरिष्ठ पत्रकार सिद्धार्थ वरदराजन के अनुसार, "उनकी मृत्यु के साथ, भारत ने अपने बेहतरीन कानूनी विद्वानों, इतिहासकारों, राजनीतिक विश्लेषकों और मानवाधिकार रक्षकों में से एक को खो दिया है - वह सब कुछ अपने आप में एक थे। आपकी आत्मा को शांति मिले नूरानी साहब!”

नूरानी साहब अपनी धुन के पक्के थे और जो काम वह करने के लिए ठान लेते जब तक वह पूरा नहीं हो जाता था वह शांति से नहीं बैठ पाते थे। यहाँ ऐसी ही एक घटना का ज़िक्र करना चाहूँगा। जुलाई 2001 में आगरा में पाकिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ़ और भारत के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बीच एक शिखर बैठक हुई। मैं उस समय बीबीसी हिंदी और उर्दू सर्विस के लिए उस बैठक को कवर कर रहा था और दिन में दो-तीन रिपोर्ट्स और इंटरव्यू भेजता था जो बीबीसी पर प्रसारित होते थे। नूरानी साहब बीबीसी के एक नियमित श्रोता थे और मेरी रिपोर्टें वह लगातार सुन रहे थे। इन रिपोर्टों में उस प्रस्तावित ड्राफ़्ट का भी ज़िक्र था जिसपर वाजपेयी और मुशर्रफ़ के दस्तखत होने थे और जो नहीं हो सके और जिसकी वजह से शिखर बैठक विफल हो गयी। 

मैं जब आगरा से वापस लौटकर दिल्ली पहुंचा तो नूरानी साहिब का फ़ोन आया कि 'मुझे वह ड्राफ़्ट चाहिए जिसका ज़िक्र आप अपनी रिपोर्टों में कर रहे थे और जिस पर दस्तख़त नहीं हो पाए।' मैंने नूरानी साहब से कहा कि वह ड्राफ़्ट मैंने अपने एक पाकिस्तानी सहयोगी के ज़रिये देखा ज़रूर था लेकिन उसकी कॉपी मेरे पास नहीं है।'

नूरानी साहब को मेरी बात का यक़ीन नहीं हुआ। उन्हें लगा शायद वह ड्राफ़्ट मैं उनको देना नहीं चाहता और झूठ बोल रहा हूँ। वह मुझसे नाराज़ हो गए और तक़रीबन दो साल तक बातचीत नहीं की। दिलचस्प बात यह है कि इस घटना के फ़ौरन बाद वह उपरोक्त ड्राफ़्ट/ दस्तावेज़ को हासिल करने पाकिस्तान गए और वहां से वापस आकर 'फ्रंटलाइन' मैगज़ीन में अपने लेख के साथ उस दस्तावेज़ को प्रकाशित किया जिसपर अगर दस्तख़त हो गए होते तो वह ऐतिहासिक हो जाता और भारत-पाक रिश्तों की एक नई इबारत लिख दी गयी होती। 

नूरानी साहब एक अदभुत लेखक थे। उन्होंने भारत की कूटनीति, विदेश नीति, भारत-चीन संबंध, भारत-पाकिस्तान संबंध, जम्मू-कश्मीर का सवाल, हैदराबाद का भारत में विलय, भारतीय संविधान, बाबरी मस्जिद, आरएसएस, हिंदुत्व की राजनीति और मानवाधिकारों पर कई किताबें लिखीं और बहुत से विषयों पर बहुत कुछ लिखा। वह एक चलता-फिरता इनसाइक्लोपीडिया थे और उनके पास आधिकारिक दस्तावेज़ों का विशाल भंडार था। 

'द हिंदू' समाचार पत्र समूह के संपादक और मालिक एन राम ने उनके सम्मान में दिल्ली में आयोजित एक समारोह में कहा था 'कि मेरे पास पचास से ज़्यादा लोगों की एक रिसर्च टीम है, लेकिन जब मुझे कोई सन्दर्भ तलाश करना होता है तो मैं नूरानी को फ़ोन करता हूँ और मुझे वह सन्दर्भ या जानकारी तत्काल मिल जाती है।'

लेखन के अलावा नूरानी साहिब का दूसरा शौक़ अच्छा खाना खाना  था। उन्हें मुंबई, दिल्ली, श्रीनगर और भारत के कई शहरों के खानों  की जानकारी रहती थी और अपने कुछ चुनिंदा दोस्तों के साथ वह अच्छे खानों का लुत्फ़ उठाया करते थे। मैं उन्हें कई बार पुरानी दिल्ली के उन इलाक़ों में ले गया जहाँ ढाबों पर अच्छा खाना मिलता है। वे एक पक्के मांसाहारी थे और नहारी, क़ोरमा, बिरयानी, मटन बर्रा बड़े चाव से खाते थे। एक मर्तबा मैं उन्हें पुरानी दिल्ली के चितली क़बर स्थित मुहल्ले हवेली आज़म खां की,  शुबराती की मशहूर नहारी खिलाने ले गया। उन्होंने जमकर नहारी खाई उसके मसाले खरीदे और पूछा कि क्या इसे मुंबई ले जाने का कोई इंतज़ाम हो सकता है?

नहारी खाने के बाद उन्होंने फतेहपुरी स्थित छैना राम सिंधी हलवाई की दुकान चलने की फ़रमाईश की और वहां पहुँच कर कई तरह की मिठाइयां पैक कराईं। मुझे ये जानकर हैरत हुई कि वो उस दुकान के मालिक की तीन पीढ़ियों को जानते थे।

उस दिन वह मरहूम असग़र अली इंजीनियर की याद में एक लेक्चर देने आये थे। शाम को जब मैं उन्हें सुनने कॉंस्टीटूशन क्लब पहुंचा तो वह एक अख़बार लेकर बैठे हुए थे जिसपर किनारी बाज़ार, चांदनी चौक स्थित एक हलवाई हज़ारी लाल खुरचन वाले का नंबर लिखा हुआ था। वो बड़ी मुहब्बत से बोले 'क़ुरबान साब, हज़ारी लाल की खुरचन बड़ी मशहूर है अगर उसका कुछ इंतज़ाम हो जाता तो आपकी बड़ी नवाज़िश होती' मैंने कहा ज़रूर कल सुबह मुंबई जाने से पहले आपकी खुरचन इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (आईआईसी) आपके कमरे में पहुंचा दी जाएगी। आईआईसी में, उनके ठहरने की शर्त होती थी कि उन्हें सिर्फ कमरा नंबर 38 होना चाहिए कोई और नहीं। दिलचस्प बात ये है कि खाने की कोई भी फ़रमाईश करने से पहले उनकी शर्त ये होती थी कि 'मैं उसे तभी क़ुबूल करूंगा जब आप उसके पैसे खुद नहीं देंगे बल्कि मैं ख़ुद दूँगा।

'गुज़र तो जाएगी तेरे बग़ैर भी ऐ दोस्त, बड़ी उदासी बड़ी बेकरार गुजरेगी!

आपकी आत्मा को शांति मिले नूरानी साहब!

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