भुखमरी के कगार पर अफ़ग़ानिस्तान, बच्चे बेचने पर मजबूर आम अफ़ग़ानी!
संयुक्त राष्ट्र की एजेन्सी विश्व खाद्य कार्यक्रम (डब्लूएफ़पी) के प्रमुख ने बीते दिनों जब यह कहा कि अफ़ग़ानिस्तान के लोगों की हालत इतनी नाज़ुक है कि वे जीने के लिए अपने बच्चे और शरीर के अंग तक बेच रहे हैं, तो पूरी दुनिया स्तब्ध रह गई।
डब्ल्यूएफ़पी प्रमुख डेविड बेसली ने उस अफ़ग़ान महिला से मुलाक़ात का हवाला दिया जिसने अपनी नवजात बच्ची को कुछ पैसों में इस उम्मीद के साथ बेच दिया कि इससे मिले पैसों से वे अपने दूसरे बच्चों को कुछ खिला पाएंगी और वह उस बच्ची का भी बेहतर भरण पोषण हो सकेगा।
यह तो सिर्फ एक उदाहरण है। सच तो यह है कि अफ़ग़ानिस्तान की चार करोड़ आबादी में से दो करोड़ 30 लाख लोग यानी लगभग आधी आबादी भुखमरी के कगार पर हैं, सर्दियों में वे लोग सर्द सूखे का शिकार होने जा रहे हैं। इतना ही नहीं, अफ़ग़ानिस्तान की 97 प्रतिशत आबादी इस साल के अंत तक ग़रीबी रेखा से नीचे चली जाएगी।
इसके कुछ ही दिन पहले संयुक्त राष्ट्र महासचिव अंतोनियो गुटेरेश ने चेतावनी दी थी कि पूरा अफ़ग़ानिस्तान गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा है, लोगों के पास खाने-पीने की चीजें नहीं हैं, कड़ाके की ठंड में लोगों के पास गर्म कपड़े नहीं हैं, हजारों लोग प्लास्टिक के बने शिविरों में रह रहे हैं। गुटेरेश ने विश्व समुदाय से पांच अरब डॉलर की सहायता राशि की गुहार की थी।
अफ़ग़ानिस्तान की फटेहाल आर्थिक स्थिति कोई नई बात नहीं है, लेकिन अब स्थिति विस्फोटक हो गई है। लगभग 20 साल से तालिबान से जूझ रहे देश में आर्थिक विकास का ठोस काम बड़े पैमाने पर नहीं हुआ। पूरी अफ़ग़ान अर्थव्यवस्था अमेरिका से मिलने वाले अनुदान के बल पर किसी तरह टिकी हुई थी। अमेरिका एक तरह से कृत्रिम रूप से अफ़ग़ान अर्थव्यवस्था को टिकाए हुए था और इस देश की अपनी टिकाऊ या स्वावलंबी अर्थव्यवस्था नहीं थी।
अमेरिका के अफ़ग़ानिस्तान छोड़ कर चले जाने और तालिबान के यकायक क़ब्ज़ा कर लेने के बाद अमेरिका से मिलने वाला पैसा स्वाभाविक रूप से बंद हो गया।
अफ़ग़ानिस्तान की अर्थव्यवस्था में निर्यात बेहद कम है और इसे पहले भी सामान्य कामकाज के लिए भी डॉलर के लिए अमेरिका पर ही निर्भर रहना पड़ता था।
यह स्रोत तो सूख ही गया, न्यूयॉर्क फ़ेडरल रिज़र्व के पास पड़े अफ़ग़ानिस्तान राष्ट्रीय रिज़र्व के 9 अरब डॉलर को भी अमेरिकी प्रशासन ने फ्रीज कर दिया है। इस तरह डॉलर की आमद बंद हो जाने से अफ़ग़ानिस्तान की करेंसी अफ़ग़ानी का अवमूल्यन तेज़ी से हुआ, देखते ही देखते इसकी क़ीमत 30 प्रतिशत कम हो गई।
अफ़ग़ानिस्तान केंद्रीय बैंक के पास इतना रिज़र्व नहीं है कि वह डॉलर खरीद कर अफ़ग़ानी का अवमूल्यन बचाने की कोशिश करे ताकि संतुलन बना रहे। इसका नतीजा यह हुआ कि आयात होने वाली हर चीज की कीमत बढ़ती गई, हाल यह है कि सामान्य जीवन जीने की चीजें भी अफ़ग़ानिस्तान नहीं खरीद सकता।
इस हालत में नॉर्वे की राजधानी ओस्लो में अंतरराष्ट्रीय समुदाय की एक बैठक हुई। इस बैठक में यूरोपीय संघ, अमेरिका, ब्रिटेन, फ़्रांस, इटली और मेज़बान नॉर्वे के प्रतिनिधि मौजूद थे। अफ़ग़ानिस्तान का प्रतिनिधित्व तालिबान ही कर रहा था। इसकी अगुआई विदेश मंत्री आमिर ख़ान मुत्तक़ी ने की। यदि ये सभी देश मिल कर अफ़ग़ानिस्तान को पैसे दें तो उस बल पर वह अमेरिका के न्यूयॉर्क फ़ेडरल रिज़र्व में पड़ा अपना पैसा निकाल ले। हालांकि यह पैसा काबुल का ही है, पर वह गारंटी के रूप में है।
क्या ये देश अफ़ग़ानिस्तान को पैसे देंगे, यह सवाल अहम है। इससे भी बड़ा सवाल यह है कि ये देश पैसे क्यों देंगे और किन शर्तों पर देंगे। इसका बड़ा संकेत उस बैठक में ही मिल गया और वह भी तालिबान ने ही दे दिया।
तालिबान का प्रतिनिधिमंडल एक चार्टर्ड विमान से क़ाबुल से ओस्लो गया, जिस पर लगभग 36 लाख क्रोनर यानी लगभग 3.50 लाख अमेरिकी डॉलर का ख़र्च बैठा। यदि भारतीय रुपया में इसे तब्दील किया जाए तो यह लगभग 2.62 करोड़ रुपए बैठता है। अफ़ग़ानिस्तान की मुद्रा में तब्दील करें तो तालिबान प्रशासन ने ओस्लो तक जाने में ही लगभग 3.60 करोड़ अफ़ग़ानी खर्च कर डाले।
सारे लोग इस पर चकित थे। जो देश फटेहाल हो, जिसके पास मामूली जीवन यापन के लिए सामान खरीदने को पैसे न हों, वह विश्व समुदाय से मदद की गुहार करने गया तो उसी पर साढ़े तीन करोड़ अफ़ग़ानी खर्च कर डाले! ऐसे में कोई देश कैसे किसी को पैसे देगा?
इन देशों की दूसरी आशंकाएं भी हैं। इसकी क्या गारंटी है कि तालिबान इस पैसे का ख़र्च हथियार खरीदने में नहीं करेगा? दूसरा सवाल, क्या वह अपने सगंठन को मज़बूत बनाने या पहले से बगैर वेतन के लगभग भुखमरी के कगार पर खड़े अपने काडर को पैसे देने में इस पैसे का इस्तेमाल नहीं करेगा?
सबसे बड़ी बात, पाकिस्तान, चीन और संयुक्त अरब अमीरात को छोड़ किसी देश ने अब तक तालिबान प्रशासन को मान्यता तक नहीं दी है। ऐसे में वे उसे अरबों डॉलर कैसे दे दें, सवाल यह है। सवाल यह भी है कि ऐसा करना क्या उसे मान्यता देना नहीं होगा?
तालिबान में आर्थिक निवेश करने लायक ढांचागत सुविधाएं नहीं के बराबर हैं, सड़क परिवहन, हवाई कंपनी और हवाई अड्डे नाम मात्र के ही हैं, उद्योग का कोई आधार नहीं है, कृषि व्यवस्था चौपट है। उत्पादन खपाने के लिये मध्य वर्ग नहीं है, बड़ा उपभोक्ता बाज़ार नहीं, लोगों की क्रय शक्ति नहीं है। ऐसे में कोई देश या कंपनी निवेश करे भी तो कहां और कैसे, यह यक्ष प्रश्न बना हुआ है, लेकिन इन प्रश्नों के उत्तर किसी के पास नहीं है।
चीन ने बेशक दिलचस्पी दिखाई है। उसके पास विदेश में लगाने को अतिरिक्त पूंजी भी है, अतिरिक्त उत्पादन क्षमता भी है, जिसे वह वहां खपा सके और उसके अपने सामरिक व रणनीतिक हित भी हैं। लेकिन चीन अफ़ग़ानिस्तान में खनन काम करे, सड़क बिजली वगैरह का इंतज़ाम करे या लीथियम की खुदाई ही करे, उसमें समय लगेगा।
चीन को कम से कम 50 से 60 अरब डॉलर का निवेश करना होगा, जैसा उसने पड़ोसी देश पाकिस्तान के चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे में किया है। लेकिन यह सब होने और उसका नतीजा आने में पांच साल लग जाएंगे। अफ़ग़ानिस्तान को पैसे तुरन्त चाहिए, रातों रात चाहिए।
उससे भी बड़ा सवाल यह है कि यह सबकुछ हो जाए तो उसके बाद अफ़ग़ान अर्थव्यवस्था अपने पैरों पर खड़ी होगी या चीन की गिरवी बन चुकी होगी, इसका क्या जवाब है। श्रीलंका ने हम्बनटोटा बंदरगाह बनाने के एवज में 8 अरब डॉलर का भुगतान करने के बदले वह बंदरगाह ही चीन को 99 साल की लीज़ पर दे दिया। क्या अफ़ग़ानिस्तान भी वैसा ही करेगा और यदि काबुल उस पर भी राजी हो जाए तो उसका फ़ायदा तो चीन को मिलेगा, अफ़ग़ानिस्तान के हाथ क्या आएगा?
संयुक्त राष्ट्र महासचिव ने अफ़ग़ानिस्तान की मदद के लिए पांच अरब डॉलर की मदद की गुहार लगाई है। उनका कहना है कि अंतरराष्ट्रीय संगठन ये पैसे अफ़ग़ान सरकार यानी तालिबान को नहीं देगा, बल्कि सीधे अफ़ग़ान नागरिकों तक मदद पहुंचाई जाएगी। यह मदद खाने पीने की चीजें, दवा, कपड़े, घर वगैरह के रूप में होगी। यह निश्चित तौर पर ठोस योजना है और इस पर भरोसा भी किया जा सकता है क्योंकि यह पैसा तालिबान के हाथों में नहीं जाएगा।
तकनीकी रूप से देखा जाए तो यह बहुत बड़ी रक़म नहीं है। कोरोना काल में दुनिया के सबसे धनी लोगों की कुल संपत्ति रोज़ाना 5.2 अरब डॉलर की रफ़्तार से बढ़ी है। यानी नेट वर्थ में हुई एक दिन की बढ़ोतरी से भी कम रकम देने से अफ़ग़ानिस्तान के मौजूदा संकट को कम से कम कुछ समय के लिए टाला जा सकता है। पर महासचिव अंतोनियो गुटेरेश की अपील के बाद किसी ने मदद की कोई घोषणा नहीं की है।
सवाल यह है कि ऐसे में भारत क्या करे। भारत ने फौरी तौर पर मदद भेजी है, जिसकी तालिबान प्रशासन ने जी खोल कर तारीफ की। लेकिन नई दिल्ली को यह याद रखना होगा कि अफ़ग़ानिस्तान में किए गए लगभग तीन अरब डॉलर के उसके निवेश पर पानी फिर चुका है। निज़ाम बदल चुका है और नया निज़ाम भारत नहीं, चीन और पाकिस्तान के नज़दीक है।