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पिछले एक साल में क्या बदला तालिबान के अफ़गानिस्तान में?

पिछले एक साल में क्या बदला तालिबान के अफ़गानिस्तान में?

तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान के शासन संभालने के एक साल का जश्न मनाया। तो पिछले एक साल में अफ़ग़ानिस्तान में क्या बदला? तालिबान का शासन आख़िर कैसा रहा?

तालिबान जब एक साल से शासन में होने का जश्न मना रहा था तो उसमें कोई महिलाएँ नहीं थीं। आम लोगों की भागीदारी की भी बात न ही की जाए तो बेहतर है। लेकिन सैकड़ों तालिबानी लड़ाके सोमवार को काबुल की सड़कों पर निकले। वे अधिकतर खुले पिक-अप ट्रक में दिखे। उनके हाथों में बंदूकें थीं और एक हाथ में तालिबान का झंडा।

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के शासन का मक़सद क्या था, यह तालिबान लड़ाकों के नज़रिए से भी समझा जा सकता है। जश्न मना रहे लोगों में से कुछ ने तो कहा कि उन्होंने 'अमेरिका को हरा दिया'। तो सवाल है कि क्या एक साल में तालिबान ने अफ़गानिस्तान को यही उपलब्धि दी? 'अमेरिका को हराना' और महिलाओं की भागीदारी भी लगभग शून्य?

तालिबान ने एक साल पहले 15 अगस्त को काबुल पर भी कब्जा कर लिया था। सभी अमेरिकी सैनिक तब देश से निकल भी नहीं पाए थे। तालिबान के सत्ता में आने के साथ ही जिस बात की सबसे ज़्यादा चर्चा चली थी वह महिलाओं, उनके हक, उनकी आज़ादी का मुद्दा था। 

इसके ख़िलाफ़ अफगानिस्तान की महिलाओं के क्रांतिकारी संघ यानी RAWA ने आवाज़ उठायी थी। तब से यह संघ महिलाओं के मुद्दों को उठाती रही है।

एक रिपोर्ट के अनुसार जब तालिबान एक साल के शासन का जश्न मना रहे थे तो महिलाओं के एक छोटे समूह ने कथित तौर पर अपना विरोध जताने के लिए काबुल के एक घर में गुप्त रूप से मुलाकात की और तालिबान के खिलाफ अपना प्रतिरोध जारी रखने का संकल्प लिया। RAWA के एक बयान में तालिबान को महिला विरोधी होने के लिए निंदा की गई और पिछले साल सत्ता के नियोजित हस्तांतरण के लिए अमेरिका को दोषी ठहराया गया।

बहरहाल, तालिबान का जो जश्न मनाया गया उसमें महिलाओं की भागीदारी नहीं थी। इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट के अनुसार यह पूछे जाने पर कि कोई महिला भाग क्यों नहीं ले रही है, एक तालिब ने कहा, 'उनके पास अपना काम है'; दूसरे ने कहा 'शरिया के तहत इसकी अनुमति नहीं थी'; और तीसरे ने आश्वासन दिया कि 'आप अगले साल महिलाओं को देखेंगे'।

हालाँकि उस दिन को आधिकारिक अवकाश घोषित कर दिया गया था, लेकिन ऐसा लगा कि काबुल के अधिकांश लोगों ने बाहर नहीं निकलने का फैसला किया है, जिससे यह केवल तालिबान का उत्सव बन कर रह गया।

RAWA के गुप्त विरोध में, प्रतिभागियों ने कथित तौर पर संकल्प लिया कि उनकी आवाज़ गोलियों से नहीं दबेगी। उन्होंने घोषणा की कि अफगानिस्तान की महिलाएँ विरोध करना जारी रखेंगी। इसने कहा, 'यह आसानी से अनुमान लगाया जा सकता था कि महिलाएं और लड़कियां इस बर्बर शासन की प्रमुख शिकार होंगी और जीवन के सभी क्षेत्रों में वे विनाशकारी और अमानवीय दमन का सामना कर रही हैं। हालाँकि, हमारे देश की महिलाओं ने यह साबित कर दिया है कि कोई भी ताक़त उनकी प्रतिक्रियावादी विचारधाराओं को थोप नहीं सकती और न ही उन्हें अपने घरों में कैद कर सकती है।'

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प्रतीकात्मक तसवीर।

इसने बयान में कहा है, 'अफगान महिलाओं ने तालिबान के ख़िलाफ़ व स्वतंत्रता और न्याय के लिए संघर्ष का झंडा फहराकर इतिहास रच दिया। तालिबान के कब्जे के पहले दिन से इन महिलाओं ने बंदूक या चाबुक के किसी भी डर के बिना सड़कों पर विरोध-प्रदर्शन किया है; उन्हें दबाया गया, धमकाया गया और अपमानित किया गया, लेकिन उन्होंने बहादुरी से अपनी लड़ाई जारी रखी।'

बता दें कि अफ़गानिस्तान की ये महिलाएँ उस तालिबान के ख़िलाफ़ लड़ रही हैं जिसे बर्बरता के लिए जाना जाता है। तालिबान को महिलाओं के अधिकार का विरोधी भी माना जाता है। पिछले साल सितंबर में तालिबान ने साफ कह दिया था कि औरतें मंत्री नहीं बन सकतीं, वे बस बच्चे पैदा करें। तालिबान के प्रवक्ता सैयद ज़करुल्ला हाशमी ने काबुल स्थित समाचार टेलीविज़न चैनल 'टोलो न्यूज़' से कहा था,

एक महिला मंत्री नहीं बन सकती, यह वैसा ही मामला है कि आप उसके गले पर कुछ रख दें और वह उसे लेकर चल नहीं सके। मंत्रिमंडल में किसी महिला का होना ज़रूरी नहीं है, महिलाएँ बच्चे पैदा करें।


सैयद ज़करुल्ला हाशमी, तालिबान के प्रवक्ता

जिस बर्बरता के लिए तालिबान की आलोचना की जाती है उसकी मिसाल पिछले साल से ही दिखने लगी थी। पिछले साल सितंबर में तालिबान प्रशासन ने हेरात में चार लोगों को गोलियों से भून डाला और उनके शव बीच सड़क पर क्रेन से लटका दिए थे।

अफ़ग़ानिस्तान के जेल मामलों के मंत्री नूरुद्दीन तुराबी ने पिछले साल समाचार एएफ़पी से कहा था कि सज़ाएं 'सुरक्षा के लिए ज़रूरी' हैं। उन्होंने सजाए मौत या हाथ पैर काटने का विरोध किए जाने को ग़लत माना। उन्होंने कहा, "कोई हमें यह न बताए कि हमारे क़ानून कैसे हों।"

तालिबान के सत्ता में आने के एक साल बाद अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी तालिबान ने मेलजोल की प्रक्रिया को तेज किया है। चीन और पाकिस्तान जैसे देशों ने पहले ही उसका समर्थन किया है, अब कई और देश नरम रुख अख्तियार करते दिख रहे हैं। भारत को लेकर भी कुछ ऐसी ही ख़बर आई थी। 

पिछले साल अफ़ग़ानिस्तान पर कब्जा जमाने के बाद पहली बार एक भारतीय प्रतिनिधिमंडल और तालिबान के बीच इस साल जून महीने में बैठक हुई थी। तालिबान ने भारत से अनुरोध किया था कि वह अफ़ग़ानिस्तान के साथ व्यापार में भी काम करने पर विचार करे। इसके साथ ही उसने भारत से अफ़ग़ानिस्तान में रुकी परियोजनाओं को फिर से शुरू करने की अपील की है। लेकिन क्या भारत ऐसा करेगा?

यह सवाल इसलिए कि भारत अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान शासन को आधिकारिक रूप से मान्यता नहीं देता है। तालिबान ने चुनी हुई सरकार का तख्ता पलटकर देश पर कब्जा किया है। 

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अफ़ग़ानिस्तान अब मज़बूती से तालिबान के नियंत्रण में है। पिछले साल अगस्त में जब अमेरिकी सेना अफ़ग़ानिस्तान छोड़कर वापस अपने देश जा रही थी तो तालिबान ने हमले तेज़ कर दिये और काफ़ी तेज़ी से एक के बाद एक प्रांतों पर कब्जे जमा लिए। जब सभी अमेरिकी सैनिक काबुल एयरपोर्ट से बाहर निकले भी नहीं थे कि तालिबान ने काबुल पर कब्जा कर लिया था। युद्ध के दौरान राष्ट्रपति रहे अशरफ गनी देश छोड़कर भाग गए।

इन घटनाक्रमों के बाद भारतीय मिशन के सभी कर्मचारी पिछले साल अगस्त में अफ़ग़ानिस्तान से लौट आए थे। हालाँकि तब वहाँ के भारतीय दूतावास में काम करने वाले स्थानीय लोग काम करते रहे। इन घटनाक्रमों के क़रीब साल भर बाद भारतीय अधिकारियों की टीम तालिबान से मिली थी। इन घटनाओं से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि तालिबान पिछले एक साल में कितना बदला है।

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