अल्पसंख्यक अफ़ग़ान क़बीले तालिबान के ख़िलाफ़ बनाएंगे नॉदर्न अलायंस?
क्या ताज़िक, उज़बेक और हज़ारा क़बीलों के लोग आपसी मतभेद और अतीत की लड़ाइयों और कटुता को भुला कर एकजुट हो पश्तून प्रभुत्व के प्रतीक तालिबान को चुनौती देंगे?
क्या नार्दर्न एलायंस एक बार फिर सक्रिय होगा? क्या ताज़िकिस्तान और उज़बेकिस्तान अपने पड़ोस अफ़ग़ानिस्तान में होने वाले ताज़िक-उज़बेक विद्रोह के प्रति आँखें मूंदे रहेंगे?
ये सवाल इसलिए उठ रहे हैं कि पश्तून आन्दोलन माने जाने वाले तालिबान के ख़िलाफ़ दूसरे क़बीले खास कर ताज़िक, उज़बेक और हज़ारा एकजुट हो रहे हैं।जिस नार्दर्न एलायंस ने 1996 से 2001 के तालिबान शासन के दौरान उन्हें ज़बरदस्त टक्कर दी थी और अंत में उखाड़ फ़ेंका था, उसे एक बार फिर संगठित करने की कोशिशें की जा रही हैं।
यह सच है कि उस समय नार्दर्न एलायंस के साथ अमेरिका था जो अब लौट चुका है और अपने हाथ अफ़ग़ानिस्तान से खींच चुका है। पर क्या अमेरिका इस तरह दक्षिण पूर्व एशिया के एक बड़े और भौगोलिक रणनीतिक रूप से सबसे अहम देश को चीन के हाथों जाने देगा?
ताज़िक-उज़बेक समीकरण
तालिबान को रोकने की सोच के पीछे जो जनसंख्या का समीकरण है, उसे समझते हैं।
अफ़ग़ानिस्तान की लगभग 27 प्रतिशत आबादी ताज़िक जनजाति की है। लेकिन एक अनुमान के मुताबिक, इनकी जनसंख्या इससे अधिक है और वह 37-39 प्रतिशत तक है। पश्तूनों के बाद इनकी संख्या सबसे अधिक है और ये अफ़ग़ानिस्तान के सबसे बड़े अल्पसंख्यक समुदाय हैं।
लेकिन ताज़िक सिर्फ अफ़ग़ानिस्तान में ही नहीं हैं, ये ताज़िकस्तान, उज़बेकिस्तान और पाकिस्तान में भी हैं। ताज़िकस्तान की लगभग 87 प्रतिशत जनसंख्या ताज़िकों की है।
पश्तून प्रभुत्व
अफ़ग़ानिस्तान में उज़बेक नौ प्रतिशत और हज़ारा भी नौ प्रतिशत हैं। ताज़िक, उज़बेक और हज़ारा, इन तीनों की मिलीजुली आबादी पश्तून आबादी से बड़ी है।
ताज़िकिस्तान और उज़बेकिस्तान के ताज़िक और उज़बेक को मिला दिया जाय तो जनसंख्या और ज़्यादा होती है।
इसलिए पश्तून आन्दोलन को चुनौती दे कर पश्तून प्रुभुत्व को रोकने की बात कोरी कल्पना नहीं है।
ताज़िक अफ़ग़ानिस्तान के चार सबसे बड़े शहरों में प्रभावशाली हैं। ये हैं- काबुल, मज़ार-ए-शरीफ़, हेरात और ग़ज़नी। इसके साथ ही यह 10 प्रातों में बहुसख्यक हैं-बाल्ख़, तखर, बदाक्शान, समंगन, परवान, पंजशिर, कपिशा, बागलान, ग़ोर, बुदजिस और हेरात।
उज़बेक
उज़बेक क़बीले की आबादी नौ प्रतिशत है। इस जनजाति के लोग कुंदूज़, जौज़जान और ग़ज़नी में बहुसंख्यक है। फ़रयाद प्रांत में भी इनकी अच्छी-ख़ासी आबादी है।
अहमद शाह मसूद ख़ुद पश्तून थे, पर वे उस नार्दर्न अलायंस के नेता थे जिसने तालिबान के ख़िलाफ़ 1996 से 2001 तक ज़ोरदार लड़ाई लड़ी थी। उनके साथ ताज़िक, उज़बेक और हज़ारा क़बीलों के लोग भी थे।
नार्दर्न अलायंस के कमान्डरों में से कुछ लोग एक बार एकजुट हो चुके हैं या इसके संकेत हैं कि वे एकजुट हो जाएं।
गुलबुद्दीन हिक़मतयार, अब्दुल रशीद दोस्तम, अता मुहम्मद नूर, हाज़ी मुहम्मद मुहाकीक और अमीरुल्ला सालेह एकजुट हो चुके हैं और ये सारे लोग नार्दर्न अलायंस में शामिल थे।
उज़बेक-ताज़िक नेता हैं सक्रिय
इनके साथ अहमद शाह मसूद के बेटे अहमद मसूद भी हैं।
गुलबुद्दीन हिक़मतयार ने बाल्ख़ प्रांत में मोर्चा संभाला था और अफ़ग़ान सेना ने जिस तरह लड़े बगैर ही सारा इलाक़ा खाली कर दिया था और पीछे हट गई थी, उस पर हिक़मतयार ने सार्वजनिक तौर पर अशरफ़ ग़नी को लताड़ा था और कहा था कि एक साजिश के तहत बाल्ख तालिबान को सौंप दिया गया है।
उज़बेक नेता अब्दुल रशीद दोस्तम भी हेरात में थे और उनकी आँखों के सामने ही अफ़ग़ान सेना ने लड़े बगैर ही सबकुछ सौंप दिया था और पीछे हट गई थी।
ताज़िक नेता अता मुहम्मद नूर ने अपने कुछ लोगों के साथ तालिबान को रोकने की कोशिश की थी तो अफ़ग़ान सेना ने उनका साथ नहीं दिया था और तालिबान के लड़ाके उन्हें पकड़ कर अपने साथ ले गए थे। बाद में उन्हें छोड़ दिया था।
अहमद मसूद का कहना है कि उनके पास हथियार हैं, वे अपने लोगों के साथ पंजशिर में जमे हुए हैं और तालिबान को कड़ी टक्कर देंगे।अमीरुल्ला सालेह ने तो खुद को कार्यवाहक राष्ट्रपति ही घोषित कर रखा है।
तालिबान को खदेड़ा
इस पूरे समीकरण और तालिबान के ख़िलाफ़ एक ज़ोरदार विद्रोह और विरोध की प्रबल संभावना को ज़मीन पर हो रहे कुछ घटनाक्रम से बल मिलता है, बल्कि हम यह कह सकते हैं कि ये घटनाक्रम इसके सूबत हैं।ताज़ा घटनाक्रम में तीन ज़िलों से तालिबान को खड़ेद दिया गया है।
ख़ैर मुहम्मद अंदराबी ने दावा किया है कि उनके नेतृत्व में पब्लिक रेजिस्टेन्स फ़ोर्स ने पोल-ए- हेसार, देह-सालाह-बानू और बानू से तालिबान लड़ाकों को खदेड़ दिया है और प्रशासन पर नियंत्रण कर लिया है।
अफ़ग़ानिस्तान की अस्वाका न्यूज़ एजेन्सी ने यह जानकारी दी है। इसने बागलान के स्थानीय रिपोर्टरों के हवाले से कहा है कि इन लड़ाइयों में तालिबान के कई लड़ाके मारे गए हैं।
इस वीडियो में देखा जा सकता है कि पब्लिक रेजिस्टेन्स फ़ोर्स के लोगों ने पोल-ए-हिसार पर नियंत्रण करने के बाद में तालिबान का झंडा उतार कर उस जगह अफ़ग़ानिस्तान का राष्ट्रीय झंडा लगा दिया।
Public’s Resistance Forces under Khair Muhammad Andarabi claim that they have captured Pol-e-Hesar, Deh Salah and Banu districts in #Baghlan and advancing towards other districts. They are saying that the Taliban did not act in the spirit of a general amnesty. #Taliban pic.twitter.com/AS8isXlwNC
— Aśvaka - آسواکا News Agency (@AsvakaNews) August 20, 2021
सेकंड रेजिस्टेन्स
ये तीनों ज़िले पंजशिर घाटी के नज़दीक हैं। पंजिशर घाटी में ही अहमद मसूद और अमीरुल्ला सालेह डटे हुए हैं, जहाँ तालिबान के लड़ाके फटक नहीं सके हैं।
मसद, सालेह और दूसरे नेताओं ने 'नेशनल रेजिस्टेन्स फ्रंट ऑफ़ अफ़ग़ानिस्तान' का गठन किया है, जिसे 'सेंकड रेजिस्टेन्स' भी कहा जा रहा है।
यदि इसमें ताज़िक, उज़बेक और हज़ारा के बाकी नेता जुड़ जाएं तो व्यवहारिक तौर पर यही नार्दर्न अलायंस होगा।
लेकिन इसमें और नार्दर्न अलायंस में अंतर यह होगा कि अब इनके साथ अमेरिका नहीं होगा। वह लौट चुका है। इनके साथ उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नेटो) भी नहीं होगा, उसके सैनिक लौट चुके हैं।
क्या करेगा अमेरिका?
लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या अमेरिका चीन-भारत-पाकिस्तान के बीच स्थित और गैस व खनिजों से भरे मध्य एशिया से सटे इस इलाक़े को बिल्कुल छोड़ देगा।
अमेरिका जिस चीन को दक्षिण चीन सागर में घेरने के लिए वह एड़ी चोटी एक किए हुए है और एशिया प्रशांत के नाम पर घेरेबंदी कर रहा है, उस चीन को यह इलाक़ा यूं ही तश्तरी में सजा कर दे देगा?
रूस-चीन-पाक दबदबा
शंघाई सहयोग परिषद (एससीओ) के बहाने चीन व रूस पहले ही मध्य एशिया में अपने पैर पसार चुके हैं, नेटो का सदस्य देश होने के बावजूद तुर्की से अमेरिका की खटपट चल रही है क्योंकि तुर्की को मुसलिम देशों का ख़लीफ़ बनने की पड़ी है।
पाकिस्तान चीन के पाले में जा ही चुका है। फिर दक्षिण पूर्व एशिया और मध्य एशिया में अमेरिका के लिए क्या बचा, जिससे वह चीन को रोकने की कोशिश करे?
ऐसे में अमेरिका के लिए यही मुफ़ीद है कि वह अफ़ग़ानिस्तान से बिल्कुल बाहर न निकले, बल्कि 'दो कदम आगे, एक कदम पीछे' की नीति पर चलते हुए तालिबान को उलझाए रखे।
यह महज संयोग नहीं है कि अमीरुल्ला सालेह और अहमद मसूद पंजशिर में जमे हुए हैं और मसूद दावा करते हैं कि 'उनके पास बहुत हथियार है, जो उन्होंने इसी दिन के लिए रखे हैं क्योंकि एक दिन तो यह होना ही था।'
तालिबान के काबुल पहुँचने पर गायब हो जाने वाले अमीरुल्ला सालेह पंजशिर में यूं ही नहीं खुद को कार्यवाहक राष्ट्रपति घोषित कर रहे हैं। और देश छोड़ कर भाग जाने वाले अशरफ़ ग़नी एक बार फिर स्वदेश लौटना चाहते हैं।
नॉर्दर्न एलायंस
तालिबान ने मुहम्मद नज़ीबुल्ला को जिस तरह मार कर लैम्प पोस्ट पर लटका दिया था, वह ग़नी समेत सबको याद होगा। नज़ीबुल्ला बनना कोई नहीं चाहेगा। पर नार्दर्न अलायंस को तो खड़ा किया ही जा सकता है और अलायंस के जरिए तालिबान को चुनौती तो दी ही जा सकती है।
यदि तालिबान को भगाना मुमिकन नहीं भी हो तो कम से कम सत्ता में भागेदारी का दबाव तो डाला ही जा सकता है। और इसी बहाने अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान में अपनी मौजूदगी भी बचा ही सकता है।
क्या करे भारत?
भारत के साथ मुश्किल यह है कि वह अपनी रणनीतिक मजबूरियों से तालिबान को मान्यता दे सकता है। पर क्या वह अफ़ग़ानिस्तान को उस हक्क़ानी नेटवर्क के हवाले कर देगा, जिसे आईएसआई ने ही खड़ा किया है और जिसका औपचारिक नाम ही 'क्वेटा शूरा' है? बता दें कि क्वेटा पाकिस्तान के बलोचिस्तान की राजधानी है।
इसलिए अफ़ग़ानिस्तान का मामला ख़त्म नहीं हुआ है, न ही तालिबान का एकछत्र राज्य कायम हो गया है। तालिबान को नेशनल रेजिस्टेन्स फ्रंट ऑफ़ अफ़ग़ानिस्तान से कितना प्रतिरोध मिलेगा, उस ओर सबकी निगाहें हैं।