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तालिबान की वापसी से आशंकित हैं अफ़ग़ान महिलाएं

तालिबान की वापसी से आशंकित हैं अफ़ग़ान महिलाएं

अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सेना की वापसी से तालिबान और अलक़ायदा को नई ज़िंदगी मिल गई है। अब यहाँ हिंसा की नई इबारत लिखी जा रही हैं। ऐसा लग रहा है कि 11 सितंबर तक सेना की पूरी वापसी हो जाने तक हालात बेकाबू हो जाएंगे। 

अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सेना की वापसी से तालिबान और अलक़ायदा को नई ज़िंदगी मिल गई है। अब यहाँ हिंसा की नई इबारत लिखी जा रही हैं। हर रोज हमले बढ़ रहे हैं। ऐसा लग रहा है कि 11 सितंबर तक सेना की पूरी वापसी हो जाने तक हालात बेकाबू हो जाएंगे। 

अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन के 1 मई से सेना वापसी की प्रक्रिया शुरू करने और 11 सितंबर तक पूरी सेना हटा लेने की घोषणा के बाद ही हिंसा तेज हुई है। तालिबान के साथ ही अब अन्य संगठन भी सक्रिय हो गए हैं। तालिबान ने पहले अमेरिका से कहा था कि वह अलकायदा के संपर्क में नहीं है।अब यह सामने आ रहा है कि दोनों निरंतर संपर्क में रहकर ही अफगानिस्तान पर कब्जे की योजना बना रहे थे। तालिबान ने कई शहरों पर अब बड़े हमले शुरू कर दिए हैं। ज़बरदस्त बमबारी की जा रही है। हेलमंद, जाबुल, बघलान, हेरात, फ़रह, बदख्शान, ताखर और फरयाब में अफ़ग़ान सेना के साथ तालिबान का युद्ध चल रहा है। 

रक्षा मंत्रालय के प्रवक्ता फ़वाद अमन के अनुसार, पिछले कुछ दिनों में तालिबान ने अपने हमले बढ़ा दिए हैं। इन हमलों में काफी नुक़सान हुआ है। जवाबी कार्यवाही में सेना ने कई स्थानों पर हवाई हमले भी किए हैं। कुछ क्षेत्रों में कमांडो फोर्स तैनात किए गए हैं। 

बम धमाके

अफ़ग़ानिस्‍तान की राजधानी काबुल में हाल ही में एक बालिका विद्यालय के पास हुए बम धमाकों में 58 लोगों की मृत्यु हो गई और 150 अन्‍य लोग घायल हुए। सय्यद उल शुहादा हाई स्‍कूल के बाहर उस समय विस्‍फोट हुआ जब छात्राएं स्‍कूल से बाहर निकल रही थीं।पहले एक कार बम धमाका हुआ और उसके बाद दो अन्‍य बम धमाके हुए। हताहतों में अधिकांश छात्राएं हैं। किसी भी संगठन ने अभी तक इन बम धमाकों की जिम्‍मेदारी नहीं ली है। पिछले दिनों कंधार में एक पूर्व न्यूज एंकर निकत ख़ान की हत्या गोली मारकर कर दी गई। 

अफ़ग़ानिस्तान में कामकाजी लड़कियां जिन्होंने कभी तालिबान के शासन का अनुभव नहीं किया है, अब खौफ़ में जी रही हैं। देश में पिछले 20 सालों में महिलाओं ने जो तरक्की हासिल की है, अब उन्हें उसके पलट जाने का ख़तरा सता रहा है।

तालिबान ने वादा किया कि महिलाएँ शिक्षा के क्षेत्र में सेवा दे सकती हैं, व्यापार, स्वास्थ्य और सामाजिक क्षेत्र में काम कर सकती हैं। इसके लिए उन्हें इसलामी हिजाब का सही ढंग से इस्तेमाल करना होगा। साथ ही यह वादा भी किया कि लड़कियों को अपनी पसंद का पति चुनने का विकल्प होगा।

लेकिन अपने पिछले शासन में तालिबान ने जो किया उसे देखते हुए उसपर विश्वास करना कठिन है। 

तालिबान की कट्टर विचारधारा की शिकार सबसे अधिक लड़कियाँ और महिलाएं हुईं। 

रूढ़िवादी सोच

अफ़सोस की बात यह है कि सिर्फ तालिबान ही नहीं अफ़ग़ानिस्तान (खास कर ग्रामीण इलाकों में) का आम पुरुष भी महिलाओं के मामले में बेहद रूढ़िवादी है। तालिबान के इसलामी अमीरात और उसके शरीया क़ानून का भले ही वो समर्थन न करता हो, लेकिन सिर्फ 15 फीसदी पुरुष ही महिलाओं के बाहर जाकर काम करने के हिमायती हैं।

एक अध्ययन के मुताबिक़ 80 फीसदी अफ़ग़ान महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार हैं। अफ़ग़ानिस्तान की जेलों में बंद कैदियों में 50 फ़ीसदी महिलाएं हैं। इनमें से 95 फ़ीसदी विवाहेतर संबंधों के आरोप में क़ैद की गई हैं। बाकी अपने जुल्मी पतियों की हत्या के मामले में क़ैद हैं।

शरीया क़ानून

न सिर्फ तालिबान, बल्कि अफ़ग़ान समाज में अहमियत रखने वाले दूसरे वर्ग भी महिलाओं के बारे में बेहद रुढ़िवादी हैं। वे शरीया क़ानूनों के हिमायती हैं और इसकी आड़ में महिलाओं के अधिकारों और आज़ादी में ज्यादा से ज्यादा कटौती करना चाहते हैं।

अफगानिस्तान में सत्ता के सौदागरों को अफ़ग़ान शूरा (असेंबली) और संसदीय चुनाव में 27 प्रतिशत महिलाओं का रिजर्वेशन रास नहीं आता। महिला सांसद लगातार खुद को दरकिनार किए जाने की शिकायत करती हैं। उनकी राह में रोड़े अटकाए जाते हैं और उन्हें किसी न किसी तरीके से प्रताड़ित करने का रास्ता खोजा जाता है। 

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अब अमेरिकी सेनाओं का वतन लौटना शुरू हो चुका है। इसके साथ ही तालिबान का किसी न किसी तरीके से सत्ता में भागीदार बनना भी निश्चित है। बातचीत से पहले तालिबान भले ही यह संकेत देता रहा हो कि महिलाओं के ख़िलाफ़ अब उसके तेवर पहले जैसे नहीं रहे, लेकिन दोहा की बातचीत से ठीक पहले जिस तरह से आखिरी वक्त में उसकी ओर से उदारवादी शेर मोहम्मद अब्बास स्तानकजाई और मुल्ला बारादर की जगह कट्टरपंथी मौलवी अब्दुल हकीम हक्कानी को प्रमुख वार्ताकार बनाया गया है, उसने कई शंकाओं को जन्म दिया है।

हक्कानी को प्रमुख वार्ताकार बना कर तालिबान ने यह संदेश देने की कोशिश की है कि वह अभी भी इसलामी अमीरात की व्यवस्था चाहता है, जहां शरीया क़ानून चले।

कुछ देशों में शरीया क़ानून के तहत महिलाओं को कुछ निश्चित अधिकार मिले हैं लेकिन तालिबान का शरीया कानून महिलाओं की आजादी के बिल्कुल खिलाफ है और तो और यह मामूली गलतियों पर भी उनके ख़िलाफ़ भारी सजा का हिमायती है।

तालिबान का रवैया सख़्त

बहरहाल, दोहा में जो बातचीत चल रही है उसमें तालिबान ने अपने तेवर कड़े किए हुए हैं। लिहाजा, 2004 के बाद आए खुलेपन का फायदा उठा कर तरक्की हासिल कर चुकी शहरी और मध्य वर्गीय महिलाओं के लिए आने वाला वक्त बेहद आशंका भरा है। एक समाचार एजेंसी के अनुसार काबुल में ब्यूटी पार्लर की मालकिन सादत कहती हैं कि वह ईरान में पैदा हुई थी, उनके माता-पिता ने उस समय ईरान में शरण ली हुई थी।वह ईरान में बिजनेस करने के लिए वर्जित थी, इसलिए उन्होंने 10 साल पहले अपने देश लौटने का फ़ैसला किया, जिसे उन्होंने कभी नहीं देखा था। हाल के दिनों में अफ़ग़ानिस्तान में हिंसा की घटनाएं बढ़ने से वे चिंतित हो गई हैं और अब ज्यादा सतर्क हो गई हैं। सादत कभी अपनी कार चलाती थी, लेकिन अब वे ऐसा नहीं करती हैं।

 जॉर्जटाउन विश्वविद्यालय के सूचकांक के मुताबिक़,  अफ़ग़ान महिलाओं के लिए दुनिया के सबसे ख़राब देशों में से एक है। अफ़ग़ानिस्तान के बाद सीरिया और यमन का नंबर आता है। संयुक्त राष्ट्र के अनुमान के मुताबिक़, अफ़ग़ानिस्तान तीन में से एक लड़की की शादी 18 साल से कम उम्र में करा दी जाती है। ज्यादातर शादियाँ ज़बरन होती हैं।

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मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक़, ब्यूटी पार्लर में काम करने वाली एक और युवती कहती है, ' तालिबान का नाम ही हमारे मन में खौफ भर देता है'' तमिला पाजमान कहती हैं कि वह पुराना अफ़ग़ानिस्तान नहीं चाहती हैं ,लेकिन वे शांति चाहती हैं। वे कहती हैं, 'अगर हमे यकीन हो कि हमारे पास शांति होगी, तो हम हिजाब पहनेंगे, काम करेंगे और पढ़ाई करेंगे लेकिन शांति होनी चाहिए।'

महिलाओं की मुसीबत

20 साल की आयु वर्ग की युवतियाँ तालिबान के शासन के बिना बड़ी हुईं, अफगानिस्तान में इस दौरान महिलाओं ने कई अहम तरक्की हासिल की। लड़कियाँ स्कूल जाती हैं, महिलाएं सांसद बन चुकी हैं और वे कारोबार में भी हैं। करीमी कहती हैं, 'अफगानिस्तान में जिन महिलाओं ने आवाज उठाई, उनकी आवाज़ दबा दी गई, उन्हें कुचल दिया गया।'अफ़ग़ानिस्तान की राजधानी काबुल में सादत के ब्यूटी पार्लर में 24 साल की सुल्ताना करीमी बड़े ही आत्मविश्वास के साथ इस पार्लर में काम करती हैं और उन्हें मेकअप और हेयर स्टाइल करने का जुनून है। करीमी और अन्य युवा महिलाएं जो पार्लर में काम कर रही हैं, उन्होंने कभी तालिबान के शासन का अनुभव नहीं किया।

तालिबान ने अपने शासन के दौरान ब्यूटी पार्लर पर बैन लगा दिया था। यही नहीं उसने लड़कियों और महिलाओं के पढ़ने तक पर रोक लगा दी थी। महिलाओं को परिवार के पुरुष सदस्य के बिना घर से बाहर जाने की इजाज़त नहीं थी।

लेकिन सभी को यह एहसास है कि अगर तालिबान सत्ता हासिल कर लेता है, तो उनके सपने खत्म हो जाएंगे। करीमी कहती हैं, 'तालिबान की वापसी के साथ समाज बदल जाएगा और तबाह हो जाएगा। महिलाओं को छिपना पड़ेगा और उन्हें घर से बाहर जाने के लिए बुर्का पहनना पड़ेगा।' 

अभी जिस तरह के कपड़े करीमी पहनती हैं उस तरह के कपड़े तालिबान के शासन के दौरान नामुमकिन थे। 

अब जब अमेरिकी सैनिकों की वापसी शुरू हो चुकी है, देश की महिलाएं तालिबान और अफ़ग़ान सरकार के बीच रुकी पड़ी बातचीत पर नजरें टिकाए हुए हैं। महिला अधिकार कार्यकर्ता महबूबा सिराज का बयान मीडिया में दिखता है। वह कहती हैं, 'मैं निराश नहीं हूं कि अमेरिकी सैनिक अफगानिस्तान से जा रहे हैं। उनके जाने का समय आ रहा था।' वे अमेरिका और नाटो बल के लिए आगे कहती हैं, 'हम चिल्ला रहे हैं और कह रहे हैं कि खुदा के वास्ते कम से कम तालिबान के साथ कुछ करो। उनसे किसी तरह का आश्वासन लो। एक ऐसा तंत्र बने जो महिलाओं के अधिकारों की गारंटी दे।''' लेकिन क्या ऐसा हो पाएगा अभी यह कहना मुश्‍किल है।

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