'आदिपुरुष' में हिन्दुत्ववादी अपना चेहरा क्यों नहीं देखते
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मनुष्य देवताओं को अपनी शक्ल में गढ़ता है। इसीलिए जैसे हम हैं, हमारे देवता भी वैसे ही दीखते हैं। अगर मनुष्य की शक्ल घोड़े की तरह होती तो उसके देवताओं की सूरत भी वैसी होतीं।
- अज्ञेय, कवि
नई फिल्म ‘आदिपुरुष’ पर हो रही चर्चा या विवाद के बीच कवि अज्ञेय की यह बात याद आ गई।अज्ञेय की बात को आगे बढ़ाते हुए कहा जा सकता है कि सिर्फ़ चेहरे नहीं, हमारे देवताओं की भाषा भी वैसी ही होती है, जैसी हमारी। या एक दूसरी कहावत को थोड़ा बदल कर यह कहा सकता है कि हम जिस लायक हैं, हमें देवता भी वैसे ही मिल सकते हैं।
‘आदिपुरुष’ फ़िल्म के कुछ संवादों, दृश्यों के अलावा कुछ पात्रों के चित्रण को लेकर जो चर्चा हो रही है, उसके संदर्भ में यह सब कुछ याद आया। चर्चा की जगह विवाद लिखना चाहिए था या हंगामा क्योंकि आजकल हम चर्चा तो करते नहीं, विवाद करते हैं। चर्चा में संवाद की गुंजाइश है। विवाद में अपनी अपनी राय को दुहराते जाना है, ऐसे कि दूसरा थक जाए। अगर आपके सुर में सुर मिलाने वालों की संख्या ज़्यादा है तो आपकी बात भी स्थापित हो ही जाती है। ताक़त तर्क की नहीं, बाहुओं की है या गले के ज़ोर की है। भले लोग कुतर्क सुनकर कई बार स्तंभित हो जाते हैं।उसक जवाब देना ही जैसे ख़ुद को छोटा करना है। लेकिन ऐसा करने को उनसे कहा जाता है।
‘आदिपुरुष’ को देखकर निकलने वाले क्रुद्ध और क्षुब्ध हैं। उसका कारण है लंका में मेघनाद द्वारा उनकी पूँछ में आग लगाए जाते समय हनुमान द्वारा बोले गए संवाद। क्या हनुमान वैसी ज़ुबान बोल सकते हैं,जैसी इस फ़िल्म में बोलते हुए वे दिखलाए गए हैं? कुछ लोग इसे सड़क छाप, कुछ टपोरी ज़ुबान कह रहे हैं और अपने आराध्य हनुमान के मुँह से उन शब्दों को सुनकर आहत हैं,जिनका इस्तेमाल ख़ुद करते हुए उन्हें कोई हिचक कभी नहीं होती। यह भाषा कोई गुंडा या लफ़ंगा तो बोल सकता है, यहाँ तक कि हमारे नेता भी बोल सकते हैं, लेकिन हनुमान? उनके मुँह में उस प्रकार के संवाद डालकर फ़िल्मकार या उसके लेखक ने घोर पाप किया है!
इस ऐतराज़ पर बात करने के पहले यह कहना ही होगा कि इस फ़िल्म ने पहली बार अभिनेता या निर्देशक की जगह फ़िल्म के पटकथा और संवाद लेखक को केंद्र में स्थापित कर दिया है।यह इसकी उपलब्धि है। हिंदी सिनेमा में एक से बढ़कर एक पटकथा लेखक हुए हैं लेकिन शायद ही किसी संवाद लेखक को इतना महत्व मिला हो जितना ‘आदिपुरुष’ के संवाद लेखक को मिल रहा है।
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फ़िल्म का नाम ‘आदिपुरुष’ है लेकिन वह राम कथा का आज का संस्करण है। कहना चाहिए रामकथा का हिंदुत्ववादी संस्करण।
यह अलग बात है कि ख़ुद हिंदुत्ववादी इसे देखकर हतप्रभ दीख रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने भी इस फ़िल्म पर पाबंदी की माँग की है। लेकिन वे अस्थायी पाबंदी के लिए कह रहे हैं ताकि इसमें आवश्यक संपादन करने का वक्त फ़िल्मकार को मिल सके। हिंदुत्ववादियों के अलावा दूसरे लोग भी फ़िल्म से नाराज़ हैं। कॉंग्रेस पार्टी के नेता हों या आम आदमी पार्टी के नेता, सबने इस फ़िल्म की निंदा की है। छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री ने तो राज्य मेंइस पर प्रतिबंध लगाने की धमकी दी है।
पाबंदी के तर्क का विरोध स्वाभाविक तौर पर वे लोग करेंगे जो सिद्धांतत: अभिव्यक्ति के स्वातंत्र्य के पक्षधर हैं। देखना होगा कि क्या कुछ धार्मिक लोग अदालत जाते हैं या नहीं और अदालत का क्या रुख़ रहता है।
फ़िल्म के संवाद लेखक इस विरोध से हैरान हैं। उनका कहना है कि उनकी नानी दादी इसी तरह उन्हें रामकथा या महाभारत सुनाती रही थीं, इसी प्रकार की भाषा में रामकथा सुनते हुए वे बड़े हुए हैं। उनके इस दावे को सुनकर बाक़ी हिंदू अपनी नानी दादियों को याद कर रहे हैं। क्या उनके राम ,लक्ष्मण या हनुमान भी ऐसी ही भाषा बोलते थे?
लेखक के मुताबिक़ बड़े बड़े हिंदू कथावाचक भी इसी तरह की भाषा का प्रयोग करते हैं। वे उनके वीडियो ताज़ा सबूत के रूप में पेश करने की पेशकश कर रहे हैं। और वे सही हैं क्योंकि कुछ लोगों ने ऐसे एक भगवावस्त्रधारी कथावाचक या संत के प्रवचन का वीडियो प्रसारित किया है जिसमें वे ठीक वैसी ही भाषा का प्रयोग कर रहे हैं जैसी इस फ़िल्म के हनुमान करते हैं। हिंदुओं के बीच आज अनेक ऐसे संत लोकप्रिय हैं जो अपने प्रवचनों में इसी स्तर की भाषा बोलते हैं। इस प्रकार फ़िल्म के पटकथाकार तो किसी मौलिकता का दावा भी नहीं कर रहे।
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साथ ही वे यह भी कह रहे हैं कि इस फ़िल्म को एक प्रयोग की तरह देखा जाना चाहिए। दिलचस्प यह है कि रामकथा के साथ किसी प्रयोग की इजाज़त न देने वाले टी वी समाचारवाचक इस फ़िल्म के विरोध पर अफ़सोस जता रहे हैं।
कॉंग्रेस या शेष दलों के या साधारण धार्मिक हिंदुओं का विरोध तो समझ में आता है लेकिन हिंदुत्ववादियों का फ़िल्म का विरोध पाखंड से अधिक कुछ नहीं। हिंदुत्व के विरोधी काफ़ी पहले से राम को हिंसक नायक में तब्दील करने की कोशिशों की आलोचना करते रहे हैं। रामकथा के हिंदुत्ववादी इस्तेमाल को लेकर उनका विरोध और ‘आदिपुरुष’ की भाषा और चित्रण का उनका विरोध सुसंगत है। लेकिन जो रामनवमी या दूसरे पर्वों का इस्तेमाल मुसलमानों के ख़िलाफ़ हिंसा के लिए करते हैं जिनके जुलूसों में मुसलमानों को गाली गलौज करते हुए गाने बजते हैं, उन्हें इस फ़िल्म की भाषा से क्यों ऐतराज़ है?
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जो अपने धार्मिक या पवित्र अवसरों पर अश्लील नारे लगा सकते हैं, फूहड़ और अश्लील गाने बजा सकते हैं, उन्हीं के लिए तो ‘आदिपुरुष’ के हनुमान का सृजन किया गया है।
क्या अपनी असली तस्वीर देखकर वे चौंक उठे हैं? या इस फ़िल्म ने उनके पवित्रता के बोध की असली अभिव्यक्ति को जैसे जगज़ाहिर कर दिया है, उससे वे क्रुद्ध हैं? यह फ़िल्म हिंदुओं के अलावा बाक़ी लोग भी देखेंगे। इससे हिंदुओं के पूज्य चरित्रों के बारे में उनकी राय बनेगी। क्या इस वजह से हिंदुत्ववादी नाराज़ हैं कि यह फ़िल्म हिंदुत्व का असली चेहरा दिखलाती है? ये हैं हिंदुत्ववादियों के राम, लक्ष्मण, हनुमान! उनके पूजनीय ही जब ऐसी भाषा बोलते हैं तब उनके बारे में कहने को क्या रह जाता है?
फ़िल्म के विरोध के बीच पटकथा लेखक का आत्मविश्वास देखने लायक़ है। वे स्वीकार करते हैं कि इस भाषा में धमक,दबंगई, यहाँ तक कि गुंडई भी है। लेकिन क्या उसे आप असंसदीय कह सकते हैं?
क्या गुंडई अस्वीकार्य है? उनका कहना है कि यह सदियों की नींद से जागे हुए हिंदू की भाषा है। उन्हें तो बड़े होते हुए ख़ुद को हिंदू कहते डर लगता था कि कहीं इसके चलते उन्हें जेल में न डाल दिया जाए। इधर कुछ वर्षों से यह हुआ है कि वे अपनी पहचान हिंदू के रूप में बतला सकते हैं। यह उस ‘नवस्वतंत्र’, ‘नवजाग्रत’ हिंदू का स्वर है जो ‘आदिपुरुष’ के हनुमान के मुँह से सुनाई दे रहा है।
‘आदिपुरुष’ वह आईना है जिसमें हिंदू समाज अपना चेहरा देख सकता है। वह यही है या जिन्हें उसने अपना नेता मान लिया है, उनका उसके बारे में यह ख़याल है कि उसकी संवेदना को इतना विकृत किया जा चुका है कि उसे ‘आदिपुरुष’ को सफल करना ही होगा। आदिपुरुष वह कसौटी है जिस पर हिंदू समाज को ख़ुद को कसकर खरा साबित करना है।