जन्मदिन पर विशेष : वह क्यों कहती थीं- दुनिया में सिर्फ़ और सिर्फ़ 'एक' ज़ोहरा सहगल है?
कुछ शख्सियतें ज़िंदगी की प्रतिबद्धता की वह खुली किताब होती हैं जिनका जिया एक-एक लफ्ज़ धड़कता है और अपना होना दर्ज कराता है। साहिबजादी ज़ोहरा बेगम मुमताजुल्ला ख़ान उर्फ ज़ोहरा सहगल ऐसी ही एक नायाब शख्सियत थीं। स्त्री अस्मिता की अजब ज़िंदा मिसाल और एक जानदार (यक़ीनन शानदार भी) लौ!
102 वर्ष के अपने लंबे-गहरे जिस्मानी सफर को उन्होंने जिस ज़िंदादिली और ख़ुदमुख़्तारी के साथ जिया-निभाया, वैसा किसी अन्य समकालीन महिला हस्ती ने नहीं। दंभ नहीं बल्कि मज़ाक़ में वह कहा करती थीं कि दुनिया में सिर्फ़ और सिर्फ़ 'एक' ज़ोहरा सहगल है! उनके लिए यह कथन बेशक मज़ाक़ होगा लेकिन हक़ीक़त से इसका रिश्ता बेहद गहरा था। इतना गहरा कि अस्सी साल के अपने कलात्मक पड़ावों में जाने-अनजाने अथवा नैसर्गिकता के बूते ऐसा बहुत कुछ किया जो किसी भी प्रतिभाशाली एवं रचनात्मक कलाकार को ख़ुद-ब-ख़ुद महान किंवदंती में तब्दील कर देता है।
ज़ोहरा की पैदाइश उस दौर (1912) की है जब पुरुष सत्ता अपनी तमाम अलामतों के साथ शिखर पर थी। बीस के दशक में उन्होंने लाहौर के क्वीन मैरी कॉलेज में दाख़िला लिया। उनकी वालिदा 'अप्रकट प्रगतिशील' थीं और ख्वाहिशमंद थीं कि किसी भी सूरत में उनकी लाडली आला से आला तालीम हासिल करे। क्वीन मैरी कॉलेज में बुर्का अपरिहार्य था। सो किशोरावस्था से ही कुछ बाग़ी तबीयत की ज़ोहरा सहगल ने मजबूरी में उसे पहना और फिर छोड़ भी दिया। उस दौर में मर्द-औरत के बीच संवाद दुर्लभतम था लेकिन ज़ोहरा बगैर सकुचाए सबसे पूरे आत्मविश्वास के साथ बात और बहस करती थीं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नारीवाद की अवधारणा बाद में आई। ज़ोहरा सहगल पहले ही उसमें ढल चुकी थीं।
उनकी रचनात्मक ज़िंदगी में 'पापाजी' और 'दादा' की अहम भूमिका थी। इस भूमिका को उन्होंने अपनी आत्मकथा में भी बार-बार रेखांकित किया है। पूरे ऐहतराम के साथ। ‘पापाजी’ थे पृथ्वीराज कपूर और ‘दादा’ उदयशंकर! एक उस दौर का रंगमंचीय अभिनय-सम्राट था तो दूसरा अभिनय के साथ-साथ नृत्य-कला का विलक्षण साधक। पृथ्वीराज कपूर इप्टा के सिरमौर थे तो उदयशंकर अपनी अतिख्यात नाट्य संस्था के रहनुमा।
ज़ोहरा सहगल 1935 में उदयशंकर की अल्मोड़ा स्थित संस्था से जुड़ीं। इसी कंपनी में कामेश्वर सहगल भी थे जिनसे 1942 में उनकी शादी हुई। तभी से वह ज़ोहरा बेगम से ज़ोहरा सहगल हो गईं। उदयशंकर की टीम की सदस्या होकर उन्होंने जापान, जर्मन, फ्रांस, मिस्र और अमेरिका सहित कई देशों में जाकर प्रस्तुतियाँ दीं तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर के समीक्षकों से खुली वाहवाही हासिल की।
उदयशंकर की अल्मोड़ा में नृत्यशाला थी। वहाँ उन्होंने प्रशिक्षक का काम भी किया। कुछ समय बाद ज़ोहरा पति कामेश्वर सहगल के साथ लाहौर के जोरेश डांस इंस्टिट्यूट में सह-निर्देशक रहीं। 1947 के विभाजन के वक़्त उन्होंने हिंदुस्तान में रहना तय किया।
प्रगतिशील रुझान ने उन्हें वाया इप्टा पृथ्वीराज कपूर के पृथ्वी थिएटर से जोड़ा। पृथ्वी थिएटर में वह अभिनेत्री और नृत्य निर्देशिका दोनों थीं। चौदह महत्वपूर्ण साल उन्होंने वहाँ बिताए। इप्टा का बनना और फिर निष्क्रिय हो जाना नज़दीक से देखा।
जोहरा सहगल का सिनेमाई सफर ख्वाजा अहमद अब्बास की फ़िल्म 'धरती के लाल' से शुरू हुआ। इसके बाद 'नीचा नगर' में काम किया। इस फ़िल्म को अंतरराष्ट्रीय स्तर की ख्याति हासिल हुई और ज़ोहरा को 1946 में कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल अवॉर्ड मिला। यह उन्हें मिला पहला बड़ा अवार्ड था। तब तक किसी अन्य भारतीय अभिनेत्री को कान फ़िल्म फ़ेस्टिवल अवार्ड नहीं मिला था।
वह इंग्लैंड में बीबीसी टेलीविजन और ब्रिटिश ड्रामा लीग की स्थाई कलाकार रहीं। साथ ही कई अन्य विदेशी फ़िल्मों और धारावाहिकों में उल्लेखनीय अभिनय किया। ब्रिटिश रंगमंच की कतिपय महान हस्तियाँ उनकी क़रीबी दोस्त थीं। विदेश में उनके 6 नाटक, 8 फ़िल्में और 4 टेलीविजन सीरीज़ विशेष चर्चा में रहे- जिनका ज़िक्र आज भी वहाँ के सिनेमा और नाट्य पाठ्यक्रमों में बखूबी होता है। भारत में उन्होंने इब्राहिम अल्काजी, हबीब तनवीर, अमीर रज़ा हुसैन, मदीहा गौहर, रूद्रदीप चक्रवर्ती, एम के रैना, गौहर रज़ा, मणि रत्नम, अनुराग बोस, निखिल आडवाणी, बालाकृष्णन, संजय लीला भंसाली, केतन आनंद और आदित्य चोपड़ा आदि ख्यात नाटक-फ़िल्म निर्देशकों के साथ काम किया।
सफदर हाशमी के साथ उनका गहरा आत्मीय रिश्ता था। सफदर की हत्या के बाद उन्होंने विरोध तथा श्रद्धांजलि सभा में फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की मशहूर प्रतिरोधी नज़्म 'इंतिसाब' पढ़ी थी। रंगमंच और सिनेमा में उनके योगदान के लिए उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया, जिनमें संगीत नाटक अकादमी, (यूनाइटेड किंगडम में बहु सांस्कृतिक फ़िल्म वे रंगमंच के विकास में उल्लेखनीय योगदान के लिए) नॉर्मन बेटन अवार्ड, आजीवन उपलब्धियों के लिए संगीत नाटक अकादमी फ़ेलोशिप, पद्मश्री तथा पद्म विभूषण उल्लेखनीय हैं।
वह नास्तिक थीं। उन्होंने अपनी वसीयत में लिखा था, ‘जब मैं मरूँ तो मैं नहीं चाहती कि तब किसी तरह का धार्मिक या कला से जुड़ा कार्यक्रम हो। अगर शवगृह के लोग मेरी राख रखने से मना करें तो मेरे बच्चे उसे घर लाकर टॉयलेट में बहा दें।... इससे ज़्यादा घिनौना कुछ नहीं हो सकता कि किसी मरे हुए आदमी का कोई हिस्सा किसी जार में रखकर सजाया गया हो। अगर ज़िंदगी के बाद कुछ नहीं है तो फिर किसी चीज की चिंता करने की ज़रूरत नहीं है, लेकिन अगर उसके बाद कुछ है तो... मेरी तथाकथित आत्मा जन्नत में घूमेगी। मैं अपने प्यारे कामेश्वर, अपने बहुत बूढ़े हो चुके अब्बाजान और अपने गुरुओं, जिन्हें मैं बहुत चाहती हूँ, दादा (उदयशंकर) और पापा जी (पृथ्वीराज कपूर) से मिलूँगी।"