मैं देख रहा हूँ कि मेरे भारत को बर्बाद किया जा रहा है: आनंद तेलतुम्बडे
(मैनेजमेंट गुरु, दलित चिंतक, सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक प्रो. आनंद तेलतुम्बडे को पुणे पुलिस ने भीमा कोरेगाँव में हुई हिंसा के मामले में नामजद किया था। सर्वोच्च न्यायालय ने उनके साथ नामजद किये गए अन्य सामाजिक कार्यकर्ताओं को एक महीने का समय दिया था जिसमें उन्हें ज़मानत लेनी थी। बाद में सर्वोच्च न्यायलय ने पुणे पुलिस की एफ़आईआर रद्द करने से इनकार कर दिया था। उन्होंने कहा है, ‘अभी तक मुझे विश्वास था कि अदालत के सामने पुलिस के आरोप आपराधिक झूठ साबित होंगे। पर मेरी आशा अब चूर-चूर हो गई है।’ अगस्त 2018 के अंत में पुणे पुलिस ने छह एक्टीविस्टों को गिरफ्तार किया था। हर साल नववर्ष पर लाखों की संख्या में दलित पुणे के पास भीमा कोरेगाँव में एकत्रित होकर 1818 में दलित सैनिकों की जीत का उत्सव मनाते हैं। वे ब्रिटिश सेना का हिस्सा थे, पेशवा नेतृत्व वाले मराठा शासकों के ख़िलाफ़ उनकी जीत हुई थी। इसे दलितों के साथ जाति के आधार पर हो रहे भेदभाव की लंबी लड़ाई में बड़ी सफलता के रूप में देखा जाता रहा है। इसकी 200वीं जयंती पर भड़की हिंसा के बाद कई सामाजिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया जिनमें सुधा भारद्वाज, गौतम नवलखा, आनंद तेलतुम्बडे, वर्नन गोंज़ाल्विस आदि शामिल थे। यह मामला तभी का है।)
आनंद तेलतुम्बडे ने अब एक पत्र लिखा है-
भारत की जनता के नाम खुला पत्र
मैं जानता हूँ कि बीजेपी-आरएसएस गठजोड़ द्वारा एक मक़सद से मचाए जा रहे शोर और उसके अधीन काम कर रही मीडिया की भीड़ में यह कहीं खो जाएगा। फिर भी मैं समझता हूँ कि आपसे बात की जानी चाहिए क्योंकि मुझे पता नहीं है कि दूसरा मौक़ा मिलेगा कि नहीं।
अगस्त 2018 में जब पुलिस ने गोवा इंस्टीट्यूट ऑफ़ मैनेजमेंट के फ़ैकल्टी हाउसिंग कॉम्पलेक्स स्थित मेरे घर पर छापा मारा तब से मेरी दुनिया उलट-पुलट गई है। अपने सबसे बुरे सपने में भी मैंने उन सब चीजों की कल्पना नहीं की थी जो मेरे साथ होने लगीं। हालाँकि, मुझे पता था कि पुलिस मेरा लेक्चर आयोजित करने वालों के यहाँ जाती थी, ख़ासकर विश्वविद्यालयों में और उनसे मेरे बारे में पूछताछ कर उन्हें डराया करती थी। मैं समझता था कि वह मुझे मेरा भाई समझती होगी जो वर्षों पूर्व परिवार छोड़ गया था। जब मैं आईआईटी, खड़गपुर में पढ़ाता था तो बीएसएनएल के एक अधिकारी ने फ़ोन कर अपना परिचय दिया और ख़ुद को मेरा प्रशंसक तथा शुभचिन्तक बताते हुए यह सूचना दी कि मेरा फ़ोन टैप किया जा रहा था। मैंने उनका शुक्रिया अदा किया पर किया कुछ नहीं। अपना सिम तक नहीं बदला।
इस तरह की घुसपैठ से मैं परेशान था पर यह सोचकर राहत महसूस करता था कि इससे शायद पुलिस को यक़ीन हो जाएगा कि मैं एक सामान्य व्यक्ति हूँ और मेरे आचरण में कुछ अवैध या ग़ैरक़ानूनी नहीं है। पुलिस आमतौर पर नागरिक अधिकार कार्यकर्ताओं को पसंद नहीं करती है क्योंकि वे पुलिस पर सवाल उठाते हैं। मैं समझता था कि इसका कारण यह हो सकता है कि मैं उस वर्ग का था। तब भी मैं यह सोचकर राहत महसूस करता था कि उन्हें पता चलेगा कि मैं अपनी उस भूमिका को नहीं निभा सकता क्योंकि मैं अपने काम में पूरी तरह फँसा हुआ था।
एक दिन सुबह-सुबह जब मेरे इंस्टीट्यूट के डायरेक्टर का फ़ोन आया और मुझे बताया गया कि पुलिस ने कैम्पस में छापा मारा है और मुझे तलाश रही है - तो कुछ सेकेंड तक मेरे पास कहने के लिए कुछ नहीं था। मैं आधिकारिक काम से कुछ ही घंटे पहले मुंबई पहुँचा था और मेरी पत्नी पहले से पहुँची हुई थीं। जब मुझे पता चला कि उस दिन जिन लोगों के घरों में छापा पड़ा था उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया तो मैं यह महसूस कर काँप गया कि मैं बस बाल-बाल बच गया। पुलिस को मेरा अता-पता मालूम था और वह मुझे उस समय भी गिरफ्तार कर सकती थी पर नहीं किया। और इसका कारण उन्हीं को पता होगा। सुरक्षा गार्ड से जबरन चाबी लेकर उन लोगों ने मेरा घर खोला भी था पर सिर्फ़ वीडियोग्राफ़ी करके वापस बंद कर दिया। हमारी परेशानी उसी समय से शुरू हुई। अपने वकीलों की सलाह पर मेरी पत्नी ने गोवा की अगली उपलब्ध उड़ान पकड़ी और बिचोलिम थाने में शिकायत दर्ज कराई कि पुलिस ने हमारी अनुपस्थिति में हमारा घर खोला था और अगर कुछ प्लांट कर दिया हो तो हम ज़िम्मेदार नहीं होंगे। उसने पूछताछ के लिए हमारे टेलीफ़ोन नंबर देने की भी पेशकश की।
माओवादी वाली कहानी शुरू करने के तुंरत बाद न जाने क्यों पुलिस ने प्रेस कॉन्फ़्रेंस करनी शुरू कर दी थी। स्पष्ट रूप से इसका मक़सद लोगों में मेरे और दूसरे गिरफ्तार लोगों के ख़िलाफ़ मददगार मीडिया की सहायता से पूर्वग्रह फैलाना था। 31 अगस्त 2018 को, ऐसी ही एक प्रेस कॉन्फ़्रेंस में एक पुलिस अधिकारी ने पूर्व में गिरफ्तार किए गए लोगों के कंप्यूटर से बरामद बताया गया एक पत्र पढ़कर सुनाया। यह मेरे ख़िलाफ़ एक सबूत था। इसे अमेरिकन यूनिवर्सिटी ऑफ़ पेरिस की वेबसाइट पर आसानी से उपलब्ध सूचना के आधार पर बेहद अनाड़ी की तरह तैयार किया गया है। इसका आधार वो ऐकेडमिक कॉन्फ़्रेंस हैं जिनमें मैंने हिस्सा लिया है। शुरू में तो मैंने इसे हँस कर टाल दिया पर बाद में इस अधिकारी के ख़िलाफ़ एक सिविल और अवमानना याचिका दायर करने की सोची। आवश्यक प्रक्रिया के तहत मैंने 5 सितंबर 2018 को महाराष्ट्र सरकार को पत्र लिखकर मंजूरी की माँग की। आज की तारीख़ तक सरकार की ओर से कोई जवाब नहीं है। हालाँकि, हाईकोर्ट द्वारा फटकार लगाए जाने के बाद पुलिस की प्रेस कॉन्फ़्रेंस बंद हो गई।
इस पूरे मामले में आरएसएस का हाथ छिपा हुआ नहीं था। मेरे मराठी मित्रों ने मुझसे कहा कि उनके कर्ताधर्ताओं में से एक, रमेश पतंगे ने अपने मुखपत्र पांचजन्य में अप्रैल 2015 में ही एक आलेख लिखकर मुझे निशाना बनाया था। मेरी पहचान अरुंधति राय और गैल ओमवत के साथ एक मायावादी आंबेडकरवादी के रूप में की गई थी। हिन्दू लोककथाओं में मायावी दैत्य का संदर्भ आता है जिसे नष्ट करना होता है (अंग्रेज़ी के अपने पाठकों के लिए उन्होंने यह जानकारी दी है)। सुप्रीम कोर्ट की सुरक्षा में होने के बावजूद पुणे पुलिस ने जब मुझे अवैध ढंग से गिरफ्तार कर लिया तो हिन्दुत्व के एक साइबर गिरोह ने मेरे विकिपीडिया पेज से छेड़छाड़ की। यह एक पब्लिक पेज है और वर्षों से मुझे इस बारे में पता भी नहीं था। उन लोगों ने सबसे पहले तो सारी सूचनाएँ डिलीट कर दीं और सिर्फ़ ‘इसका भाई माओवादी है… इसके घर पर छापा पड़ा था… इसे माओवादियों से संबंध के लिए गिरफ्तार किया गया था’, आदि... लिखकर छोड़ दिया।
कुछ छात्रों ने मुझे बाद में बताया कि जब कभी वे पेज को पहले जैसा बनाने या संपादित करने की कोशिश करते हैं, यह गिरोह उसपर टूट पड़ता है और सब कुछ डिलीट कर देता है। और अपमानजनक सामग्री डाल देता है। आख़िरकार विकिपीडिया ने हस्तक्षेप किया और तब पेज स्थिर हुआ वह भी कुछ नकारात्मक सामग्री के साथ। आरएसएस के तथाकथित नक्सल एक्सपर्ट द्वारा मीडिया में भी गोले दागे गए। हर तरह का झूठ फैलाया गया। चैनल के ख़िलाफ़ मेरी शिकायत और यहाँ तक कि इंडिया ब्रॉडकास्टिंग फ़ाउंडेशन को भी लिखने का कोई असर नहीं हुआ। एक सामान्य जवाब तक नहीं आया। इसके बाद अक्टूबर 2019 में पेगासस का मामला प्रकाश में आया। इसके मुताबिक़ सरकार ने मेरे फ़ोन में अन्य चीजों के अलावा एक बहुत ही घातक, इजराइली स्पाईवेयर (जासूसी करने वाला बेहद महंगा सॉफ्टवेयर) लगवा दिया है। इस पर मीडिया में कुछ दिन हंगामा रहा पर यह गंभीर मसला भी अपनी मौत मर गया।
मैं एक सामान्य आदमी हूँ जो अपनी ईमानदारी से अपनी रोटी कमाता रहा है और अपने लेखन के ज़रिए लोगों को अपने ज्ञान से जितनी सहायता हो सकती है, करता हूँ। देश सेवा का मेरा क़रीब पाँच दशक का बेदाग़ रिकॉर्ड है। इस दौरान मैंने कॉरपोरेट विश्व में, एक शिक्षिक के रूप में, एक नागरिक अधिकार कार्यकर्ता और बुद्धिजीवी के रूप में काम किया है। मेरे ढेर सारे लेखन में 30 किताबें, ढेरों आलेख, टिप्पणी, पर्चा, कॉलम आदि शामिल हैं जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रकाशित हुए हैं। इनमें किसी में भी एक भी ऐसा उदाहरण नहीं तलाशा जा सकता है जिसपर किसी तरह की हिंसा या किसी विध्वंसात्मक आंदोलन के समर्थन का आरोप भी लग सके। फिर भी जीवन के अंतिम दिनों में मुझ पर कठोर यूएपीए (विधिविरुद्ध क्रियाकलाप निवारण अधिनियम 1967) के तहत गंभीर अपराध का आरोप लगाया जा रहा है।
स्पष्ट है कि मेरे जैसा व्यक्ति सरकार के तीव्र प्रचार और उसके अधीन मीडिया का मुक़ाबला नहीं कर सकता है। इस मामले का विवरण इंटरनेट पर फैला हुआ है और किसी भी व्यक्ति के लिए यह समझना मुश्किल नहीं है कि यह सब कहीं की ईंट और कहीं का रोड़ा जोड़कर मामला बनाने का अपराध है। इस संबंध में एआईएफ़आरटीई (ऑल इंडिया फ़ोरम फ़ॉर राइट टू एजुकेशन) की वेबसाइट पर इस संबंध में एक संक्षिप्त टिप्पणी है जिसे पढ़ा जाना चाहिए। आपकी सुविधा के लिए मैं उसका सारांश यहाँ लिख रहा हूँ:
मुझे पाँच पत्रों के आधार पर फँसाया गया है I यह उन 13 पत्रों में हैं जो पुलिस ने इस मामले में गिरफ्तार किए गए दो जनों के कंप्यूटर से कथित रूप से बरामद किए हैं। मेरे पास से कुछ भी बरामद नहीं हुआ है। पत्र में किसी ‘आनंद’ का संदर्भ है जो भारत में बहुत आम नाम है। पर पुलिस ने इसका संबंध बिना किसी शक-शुबहा के मुझसे जोड़ लिया। इन चिट्ठियों के रूप और उनकी सामग्री पर भी ध्यान नहीं दिया गया और विशेषज्ञों ने ही नहीं, सुप्रीम कोर्ट के एक न्यायमूर्ति ने भी इसे खारिज कर दिया जबकि पूरी न्यायपालिका में वे अकेले थे जिन्होंने सबूत की प्रकृति की चिन्ता की। पत्र की सामग्री में ऐसा कोई संदर्भ नहीं है जिसे दूर से भी सामान्य अपराध माना जा सके। पर यूएपीए क़ानून के जिन कठोर प्रावधानों के तहत व्यक्ति अपना बचाव नहीं कर सकता है उनका उपयोग कर मुझे जेल भेजा जा रहा है।
आप इस मामले को ऐसे भी समझ सकते हैं :
अचानक कुछ पुलिस वाले आपके घर आ धमकते हैं और कोई वारंट दिखाए बगैर पूरे घर को तहत-नहस कर देते हैं। अंत में वे आपको गिरफ्तार करते हैं और पुलिस हिरासत में बंद कर देते हैं। अदालत में वे कहेंगे कि (भारत के किसी भी शहर) xxx में एक चोरी (या किसी अन्य शिकायत) की जाँच के दौरान उन्हें xxx (किसी का भी नाम हो सकता है) के घर या कंप्यूटर से कुछ पत्र मिले या पेन ड्राइव मिला जो किसी प्रतिबंधित संगठन के सदस्य द्वारा लिखे प्रतीत होते हैं। और इसमें xxx का नाम है जो पुलिस के अनुसार और कोई नहीं आप ही हैं। इस तरह वे आपको एक गहरी साज़िश के हिस्से के रूप में पेश करेंगे। अचानक आपको लगेगा कि आपकी दुनिया उलट-पुलट हो गई। नौकरी चली गई। परिवार से घर छिन गया। मीडिया आपको बदनाम कर रहा है और आप कुछ नहीं कर सकते हैं। पुलिस ‘सील्ड लिफाफे’ पेश करेगी ताकि जजों को यह यक़ीन दिलाया जा सके कि पहली नज़र में आपके ख़िलाफ़ मामला है जिसके बारे में हिरासत में लेकर पूछताछ किए जाने की आवश्यकता है। उनके सबूत नहीं होने से संबंधित कोई तर्क नहीं सुना जाएगा। जज कहेंगे कि उसपर ट्रायल के समय विचार होगा। हिरासत में पूछताछ के बाद आपको जेल भेज दिया जाएगा। आप जमानत मांगते रहिए अदालतें उन्हें खारिज करती रहेंगी। आँकड़ों से पता चलता है कि जमानत मिलने या बरी कर दिए जाने में लगने वाला औसत समय चार से 10 साल है। और सच मानिए, यह किसी के भी साथ हो सकता है।
‘राष्ट्र’ के नाम पर ऐसे कठोर क़ानून संवैधानिक रूप से वैध हैं जो निर्दोष लोगों को उनकी आज़ादी और संवैधानिक अधिकारों से वंचित करते हैं। कट्टर राष्ट्र और राष्ट्रवाद को राजनीतिक वर्ग ने हथियारों से लैस कर दिया है ताकि आम लोगों को ख़त्म किया जा सके, उनका विरोध किया जा सके और उनका ध्रुवीकरण हो सके। बड़े पैमाने पर भारी उन्माद से तर्क बुद्धि का महत्व पूरी तरह ख़त्म हो गया है। अर्थ बिल्कुल उलट गए हैं और देश को बर्बाद करने वाले देशभक्त बन गए हैं। लोगों की निस्वार्थ सेवा करने वाले देशद्रोही बन गए हैं। अब जब मैं देख रहा हूँ कि मेरा भारत बर्बाद किया जा रहा है तो बहुत मामूली उम्मीद के साथ मैं ऐसे मुश्किल समय में आपको यह पत्र लिख रहा हूँ।
मैं एनआईए की हिरासत में हूँ और नहीं जानता कि कब आप से फिर बात कर सकूँगा। हालाँकि, मैं उम्मीद करता हूँ कि आप अपनी बारी आने से पहले बोलेंगे।
-आनंद तेलतुम्बडे
आनंद तेलतुम्बडे ने यह पत्र मूल रूप से अंग्रेज़ी में लिखा है। वरिष्ठ पत्रकार संजय कुमार सिंह ने इसका हिंदी अनुवाद किया है।