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500 शिक्षाविदों ने TISS के प्रवासन अध्ययन को खारिज किया- 'पक्षपातपूर्ण'

500 शिक्षाविदों ने TISS के प्रवासन अध्ययन को खारिज किया- 'पक्षपातपूर्ण'

शिक्षाविद, शोधकर्ता और बुद्धिजीवी टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज यानी TISS के ताज़ा अध्ययन 'मुंबई में अवैध अप्रवासी: सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिणामों का विश्लेषण' का विरोध क्यों कर रहे हैं?

500 से ज़्यादा शिक्षाविदों, शोधकर्ताओं और बुद्धिजीवियों ने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज यानी TISS के एक अध्ययन की तीखी आलोचना की है। उन्होंने कहा है कि टीआईएसएस का माइग्रेशन अध्ययन चुनाव से पहले मतदाताओं के ध्रुवीकरण के लिए किया गया। उन्होंने यह भी आरोप लगाया है कि यह अध्ययन हाशिए पर पड़े समुदायों को बदनाम करने और मुंबई में प्रवासियों के खिलाफ़ हिंसा भड़काने का एक जानबूझकर किया गया प्रयास है।

इस बयान को शिक्षा जगत, मीडिया, कला और नागरिक समाज के प्रमुख लोगों ने जारी किया है। इस बयान पर 500 से अधिक हस्ताक्षर करने वालों में प्रोफेसर अपूर्वानंद, प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जयति घोष, राजनीतिक वैज्ञानिक ज़ोया हसन, गीता शेषु, द हिंदू के जिया उस सलाम, अर्थशास्त्री रितु दीवान, हर्ष मंदर, सेड्रिक प्रकाश, पीपुल्स वॉच के हेनरी टीफाग्ने, फिल्म निर्माता आनंद पटवर्धन, कलाकार दानिश हुसैन, क्यूरेटर रियास कोमू, समाज विज्ञानी सरोजिनी एन, समाजशास्त्री रवि दुग्गल और जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर मोहन राव जैसे एक्टिविस्ट, बुद्धिजीवि और पत्रकार शामिल हैं। 

19 नवंबर को जारी किए गए इस बयान में 'मुंबई में अवैध अप्रवासी: सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक परिणामों का विश्लेषण' अध्ययन की आलोचना की गई है। बयान में कहा गया है कि हम पाते हैं कि यह अध्ययन अकादमिक निष्ठा के सभी सिद्धांतों का उल्लंघन करता है।

बयान में कहा गया है कि, "महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के साथ रणनीतिक रूप से मेल खाते हुए एक अनैतिक 'अध्ययन' की इस अधूरी और बेहद पक्षपाती अंतरिम रिपोर्ट का जारी होना एक अकादमिक कार्य नहीं, बल्कि राजनीतिक हस्तक्षेप का एक सुनियोजित कारनामा है। यह मतदाताओं को ध्रुवीकृत करने, हाशिए पर पड़े समुदायों को बदनाम करने और मुंबई में प्रवासियों के खिलाफ हिंसा भड़काने का एक जानबूझकर किया गया प्रयास है।"

बयान में कहा गया है कि अपनी भूमिका को विभाजनकारी विचारधाराओं के टूल तक सीमित करके, इस 'अध्ययन' से जुड़े शिक्षाविदों ने शिक्षकों और शिक्षाविदों को शर्मिंदा किया है।

टीआईएसएस के अध्ययन में कई गड़बड़ियाँ बताई गई हैं। बयान में कहा गया है कि अध्ययन की कार्यप्रणाली और नैतिक खामियाँ बहुत बड़ी हैं।

पहले से तय 3000 में से सिर्फ़ 300 प्रतिभागियों के नमूने के आधार पर यह पूरे समुदाय के बारे में व्यापक निष्कर्ष प्रस्तुत करता है, खास तौर पर मुंबई में मुस्लिम प्रवासियों के बारे में, जिन्हें बांग्लादेशी और रोहिंग्या के रूप में पेश किया जाता है। 

20 बांग्लादेशी हैं तो 120 वापस कैसे जाना चाहते हैं?

बयान में कहा गया है, 'अध्ययन में पाठकों के साथ साझा की गई कोई परिभाषा नहीं है कि अध्ययन अवैध प्रवासी को कैसे परिभाषित करता है। अध्ययन से यह साफ़ नहीं है कि प्रवासी कौन है और अवैध प्रवासी कौन है। अंतिम निवास स्थान के आधार पर 300 के सीमित नमूने में से 182 पश्चिम बंगाल से, 30 असम से, 33 बिहार से, 10 नेपाल से, 20 बांग्लादेश से और इसी तरह अन्य स्थानों से हैं। फिर अचानक हमें बताया जाता है कि इनमें से 97% मुस्लिम और अवैध प्रवासी हैं। जब 20 बांग्लादेश से हैं तो 120 कैसे कहते हैं कि वे बांग्लादेश वापस जाना चाहते हैं, जैसा कि अध्ययन के बाद के भाग में बताया गया है?'

बयान में कहा गया है कि शोधकर्ताओं ने विश्लेषण के लिए 300 उत्तरदाताओं के अपने पहले से तय नमूना आकार के 10% के आधार पर निष्कर्ष जारी करने का विकल्प चुना है। 22 मिलियन लोगों के शहर में यह मुंबई में अवैध आव्रजन के बारे में व्यापक सामान्यीकृत निष्कर्ष निकालने के लिए पूरी तरह से अपर्याप्त है। 

बयान में सवाल उठाया गया है कि अब तक 300 नमूने लिए गए हैं और अध्ययन ने अपने निष्कर्षों की घोषणा कर दी है। 300 में से केवल 7 हिंदू हैं। क्या यह अनुपात मुंबई शहर में धार्मिक जनसांख्यिकी के किसी द्वितीयक डेटा अनुपात से मेल खाता है? क्या मुंबई में 7% हिंदू हैं, या हमारे पास प्रवासियों में 7% हिंदू हैं; या उनमें से 7% अवैध प्रवासी हैं (जैसा भी परिभाषित किया गया हो)। नमूने में दावा किए गए अनुपात किसी भी वास्तविक जनसांख्यिकीय अनुपात से मेल नहीं खाते हैं।

बयान में कहा गया है कि कोई विश्वसनीय सबूत दिए बिना रिपोर्ट इन प्रवासियों को आतंकवाद, तस्करी और संगठित अपराध से जोड़ती है जो नफ़रत को बढ़ावा देती है। इस तरह की फ्रेमिंग न केवल कार्यप्रणाली के हिसाब से गलत है, बल्कि कमज़ोर आबादी के सम्मान और अधिकारों पर सीधा हमला है।

सबसे ज़्यादा चिंताजनक बात अध्ययन को जारी करने के समय और संदर्भ को लेकर है। चुनावों से ठीक पहले हाई-प्रोफाइल फ़ोरम में इस अधूरी रिपोर्ट के ‘निष्कर्षों’ को ‘जारी’ करके इन आयोजनों में उपस्थित शिक्षाविदों ने भी सांप्रदायिक विभाजन पैदा करने के लिए अकादमिक स्थानों, पदों और संसाधनों के हथियार के रूप में इस्तेमाल किए जाने की पुष्टि की। 

बयान में कहा गया है कि हमें अपने साथी शिक्षाविदों को यह बताते हुए बहुत दुख हो रहा है कि मानवाधिकार सार्वभौमिक हैं और कोई भी इंसान अवैध नहीं है। इस ‘अध्ययन’ की समस्या उसी आधार से शुरू होती है जिसके साथ शोधकर्ताओं ने शुरुआत की थी, जो कि ‘अवैध’ प्रवासियों का अध्ययन करना है। यह इस बात को नकारता है कि प्रवास एक ऐसी घटना है जो कई और जटिल फैक्टरों के कारण होती है। भले ही अध्ययन शरणार्थियों और बिना उचित दस्तावेजों के भारत में प्रवेश करने वालों पर ध्यान केंद्रित करना चाहता था, लेकिन शायद इसने कम ज़ेनोफोबिक फ़्रेमिंग का विकल्प चुना होता।

बयान में कहा गया है कि लेकिन उतना ही खेदजनक तथ्य यह है कि डेटा खुद दिखाता है कि अंतरराष्ट्रीय प्रवासियों की आबादी में अनुपात बहुत कम है और मुंबई में अधिकांश प्रवास आंतरिक प्रवास यानी अंतर-राज्यीय है जो अवैध नहीं है। इसलिए मुंबई में ‘अवैध’ प्रवास मुसलमानों के अनुपात में वृद्धि का स्रोत नहीं रहा है। 

बयान में कहा गया है कि 'यह रिपोर्ट केवल दोषपूर्ण नहीं है; यह एक बहुत ही हानिकारक दस्तावेज़ है जो बहिष्कार और घृणा की विचारधाराओं को छद्म-शैक्षणिक वैधता देने का प्रयास करता है। ...हम मांग करते हैं कि इस रिपोर्ट से जुड़े संस्थान और निकाय सार्वजनिक रूप से इसके निष्कर्षों से खुद को दूर रखें और इसके नैतिक उल्लंघनों की गहन जांच करें।'

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