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लोक उपकारी राजनीति का नतीजा है दिल्ली में ‘आप’ की जीत?

लोक उपकारी राजनीति का नतीजा है दिल्ली में ‘आप’ की जीत?

दिल्ली विधानसभा चुनावों में आम आदमी पार्टी की जीत लोक उपकारी और सबको लेकर चलने की राजनीति की जीत का संकेत है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के डेवेलपिंग कंट्रीज़ रिसर्च सेंटर (डीसीआरसी) द्वारा करवाये गये चुनाव-पूर्व सर्वेक्षण से स्पष्ट हो गया था कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी को 60 से अधिक सीटें मिलने वाली हैं। सैकड़ों छात्रों द्वारा चुनाव मुहिम के एकदम आख़िरी दौर में दिल्ली की प्रत्येक सीट पर और एक लाख से ज़्यादा के विशाल सैम्पल के माध्यम से किया जाने वाला यह सर्वेक्षण ओपीनियन पोल का व्यवसाय करने वाली एजेंसियों से अलग तरह का था।

इसके अनुमानों के मुताबिक़ ही नतीजा निकला। सर्वेक्षण के दौरान मतदाताओं से हुई बातचीत से उनकी प्राथमिकताओं का एक अंदाज़ा लगाया जा सकता है।

शिक्षा और स्वास्थ्य

इस प्रचंड जीत को कई राजनीतिक विश्लेषकों द्वारा वैकल्पिक राजनीति के आगाज़ के तौर पर देखा जा रहा है, लेकिन मतदाताओं की पसंद-नापसंद बताती है कि यह दरअसल भूमंडलीकरण के वर्चस्व के इस दौर में यह वैकल्पिक राजनीतिक से इतर लोकोपकारी और समावेशी राजनीति का संकेत है।

बजट के लगभग 25 फ़ीसदी आबंटन को शिक्षा और 12.5 फ़ीसदी को स्वास्थ्य के लिए आबंटित कर दिल्ली सरकार ने 2015 में जिस आर्थिक राजनीति की शुरुआत की थी, यह चुनाव परिणाम उसी की चरम परिणति है।

इस संदर्भ में नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन के विकास मॉडल का जिक्र करना लाज़िमी है। वह कहते हैं कि आर्थिक वृद्धि तब तक अधूरी है जब तक शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी सामाजिक सेवाओं के मोर्चे पर स्थिति नहीं सुधरती।

सामाजिक विकास का मॉडल

ज़ाहिर है कि सामाजिक विकास का यह मॉडल दिल्ली वासियों का दिल जीतने में कामयाब रहा है। इस जीत का एक तार जहाँ दिल्ली के 9 मुसलिम-बहुल क्षेत्रों और 12 आरक्षित सीटों पर भी कब्जा जमाने से जुड़ा है, वहीं दूसरा तार दिल्ली में पुरबिया मतदाताओं (उत्तर-प्रदेश और बिहार से आने वाले लोग) को अपने पक्ष में लाने से जुड़ा है।

पुरबिया मतदाताओं से प्रभावित 29 सीटों में से 24 सीटों पर ‘आप’ ने कब्जा जमाया। बिहार के तीन प्रमुख सियासी दल जेडीयू, आरजेडी और एलजेपी को भी इन क्षेत्रों में क़रारी हार का सामना करना पड़ा। इससे संकेत मिलता है कि दिल्ली के सभी वर्गों को साधने के लिए आम आदमी पार्टी ने समावेशी राजनीति का सहारा लिया।

केजरीवाल ने छवि बदली

अरविंद केजरीवाल की शुरुआती राजनीति पर फौरन धरने पर बैठ जाने, केंद्र सरकार को हमेशा दोषी ठहराने और टीका-टिप्पणी करने का रवैया हावी था। मगर सुप्रीम कोर्ट से दिल्ली सरकार के पक्ष में झुके फ़ैसले के आने के बाद बाद उन्होंने अपनी छवि बदलने की सोची।

लोकसभा और उससे पहले नगर पालिका चुनावों में बुरी तरह पराजय के बाद ऐसा करना उनके लिए लाज़िमी भी था। पूरे चुनाव के दौरान उन्होंने बड़ी समझदारी से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ दो शब्द भी नहीं कहा।

केजरीवाल बिल्कुल नहीं चाहते थे कि दिल्ली का चुनाव केजरीवाल बनाम मोदी के तर्ज़ पर लड़ा जाए। यह निर्णय उन्होंने राष्ट्रीय स्तर पर मोदी की विकल्पहीनता को ध्यान में रख कर किया।

विवादास्पद मुद्दों पर बीच का रास्ता

इसी तरह अनुच्छेद 370 हो या नागरिकता संशोधन कानून या राम मंदिर का मुद्दा, केजरीवाल ने मध्यमार्गी मार्ग अपनाते हुये इन विषयों पर नपी-तुली टिप्पणी ही की। वह स्थानीय विकास और मुद्दों को ही प्राथमिकता देते रहे।

‘आप’ जनता को यह बताने में कामयाब रही कि उसने एक लोकोपकारी सरकार चलाई है। परिणामस्वरूप जनता को यह एहसास हुआ कि दिल्ली के लिए केजरीवाल और उनकी पार्टी ही उनकी आकांक्षाओं और ज़रूरतों को पूरा कर सकती है।

सॉफ़्ट हिन्दुत्व

मतदाताओं से बातचीत से यह भी साफ़ हुआ कि जीत का एक प्रमुख कारण केजरीवाल द्वारा हिंदू भावनाओं को एक नरम स्पर्श देना और संयमित राष्ट्रवाद का का दामन थामना भी रहा।

पाँच मार्गों पर बुजुर्गो को मुफ्त धार्मिक यात्राएँ करवाना, हनुमानजी के दर्शन करना, पूछने पर हनुमान चालीसा पढ़ कर दिखाना और जीत के बाद यह कहना कि यह सिर्फ दिल्ली की जीत नहीं बल्कि भारत माता की जीत है और हनुमानजी ने दिल्ली पर कृपा बरसाई है, इस बात का प्रमाण है।

‘आप’ की रणनीति बीजेपी के उग्र हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद के बरक्स पॉपुलिज़म और राष्ट्रवाद के बीच संतुलन बनाने में कामयाब रही।

बीजेपी-कांग्रेस करे आत्म मंथन

दिल्ली का यह जनादेश बीजेपी और कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टियों को आत्म-मंथन करने का संदेश भी देता है। हम जानते हैं कि पिछले एक साल में छह प्रमुख राज्यों में इस पार्टी का जनाधार घटा है। राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का प्रभाव अब भी कायम है, पर राज्य स्तर पर नेतृत्व की कमी की भरपाई उनकी पार्टी नहीं कर पा रही है।

बीजेपी की रणनीति का असर इतना हुआ कि वह न केवल अपने वोटरों के एक बड़े हिस्से को झाड़ू के सामने का बटन दबाने से रोक पाई, बल्कि उसने अपना मत प्रतिशत 32 से मत बढ़ा कर 39 कर लिया, जो पिछले 22 वर्षो में सबसे ज्यादा है।

लेकिन, वह एक बार फिर यह समझने में नाकाम रही कि विधानसभा का चुनाव स्थानीय नेतृत्व और स्थानीय मुद्दों पर लड़ा जाता है। बीजेपी के पास इस विधान सभा चुनाव न तो करिश्माई नेतृत्व था और न ही स्थानीय नैरेटिव। वह निगम स्तर पर अपने काम का दावा कर चुनाव की तसवीर कुछ हद तक बदलने की स्थिति में भी नहीं थी।

स्थानीय मुद्दे

इतना ही नहीं, केंद्र सरकार द्वारा 40 हज़ार से अधिक अनधिकृत कॉलोनियों की जनता को मालिकाना हक़ देना भी कोई खास प्रभाव नहीं डाल पाया। दूसरी तरफ कांग्रेस को दिल्ली में अपनी तेज़ी से घटती हुई हैसियत के आईने में कड़ी आत्मालोचना करनी होगी। ख़तरा यह है कि निकट भविष्य में आम आदमी पार्टी कहीं लोकसभा और नगर पालिका चुनावों में भी कांग्रेस को की जगह न कर ले ले। 

लोकतंत्र के अध्येताओं एक महत्वपूर्ण सबक राजनीति में केन्द्रीकरण और व्यक्तिनिष्ठता की बढ़ती हुई प्रवृत्ति का है। चाहे केजरीवाल हों, या नरेंद्र मोदी— इनके नाम पर ही चुनाव लड़ा जा रहा है। यह रुझान लोकतंत्र के दीर्घकालीन हितों के लिए घातक है।

कुल मिलकर अब यह देखना होगा कि आम आदमी पार्टी आगामी पाँच वर्ष में दिल्ली वासियों की उम्मीदों और कसौटियों पर कितनी खरी उतर पायेगी। क्या वह आर्थिक रियायतों की राजनीति के साथ-साथ प्रदूषण, परिवहन, और रोज़गार के क्षेत्र में भी कोई कमाल करने की स्थिति में होगी?

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