30 साल उदारीकरण: एक विचार जिसका समय आ गया था
बड़े बदलाव किसी तारीख के मोहताज नहीं होते, लेकिन कुछ तारीखें जरूर ऐसी होती हैं जिन्हें कभी इसीलिए नहीं भुलाया जा सकता कि वहां से बदलाव का कारवां शुरू हुआ था। 24 जुलाई 1991 एक ऐसी ही तारीख है जिसे अगर हम थोड़ा निरपेक्ष होकर देखें तो लगेगा कि उस दिन कुछ भी नया नहीं हुआ। वह महज वित्त वर्ष के बाकी बचे आठ महीनों का एक बजट था जिसे उस दिन वित्त मंत्री मनमोहन सिंह ने संसद में पेश किया।
लेकिन यह दिन अर्थव्यवस्था के इतिहास की एक बड़ी घटना इसलिए बन गया कि आज जिसे हम उदारीकरण के नाम से जानते हैं उसका पहला प्रस्थान बिंदु वही है।
राव के पास थी कमान
यह सब एक ऐसी सरकार के समय शुरू हुआ जिससे बहुत ज्यादा उम्मीदें नहीं बांधी गईं थीं। यह महज एक संयोग था कि चुनाव के बाद सत्ता कांग्रेस के बुजुर्ग नेता नरसिंह राव के हाथ आ गई। एक ऐसे नेता के हाथ जो आपस में उलझे कांग्रेस के किसी भी गुट के लिए कोई खतरा नहीं थे और जिन्हें आम चुनाव के दौरान पार्टी ने टिकट देने लायक भी नहीं समझा था।
देश के राजनीतिक क्षेत्र में राव का उनकी विद्वत्ता के लिए भले ही काफी सम्मान था लेकिन उनसे अपेक्षाएं बहुत ज्यादा नहीं थीं। बहुमत पूरा नहीं था इसलिए पहली बार यह ऐसा मौका था जब कांग्रेस को इधर-उधर से जुगाड़ करके सरकार चलानी थी। यह भी माना जा रहा था कि यह जुगाड़ ही सरकार को दबाव में बनाए रखेगा और राजनैतिक अस्थिरता का खतरा हमेशा मंडराता रहेगा।
देश के आर्थिक हालात इतने खराब थे कि नेतृत्व के स्तर पर कोई भी कमजोरी भारी पड़ सकती थी। देश का विदेशी मुद्रा कोष लगभग खाली था और उसमें महज चंद रोज के आयात के लायक ही धन बचा था।
बदतर थे हालात
ऐसे में व्यवस्था चलती रहे इसके लिए सरकार के सामने विश्व बैंक के पास सोना गिरवी रखकर विदेशी मुद्रा लेने के अलावा कोई और चारा नहीं था। मुद्रास्फीति दहाई आंकड़े में पहुंच चुकी थी ओर गरीबों के लिए बाजार लगातार उनकी पहुंच से बाहर होता जा रहा था।
ऐसे में नरसिंह राव कुछ और ही ठानकर आए थे। चीजों को किस दिशा में ले जाना है इसका संकेत सरकार बनने के कुछ ही दिन के भीतर नई वाणिज्य नीति और उद्योग नीति से मिल गया था। अब इंतजार था बजट का जिसके लिए 24 जुलाई की तारीख मुकरर्र थी। इस काम को अंजाम देना था अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह को, जिनका ज्यादातर जीवन अर्थशास्त्री के बजाए ब्यूरोक्रेट और टेक्नोक्रेट के रूप में बीता था और रिटायर होने के बाद वे सलाहकार जैसी भूमिकाएं निभा रहे थे।
जब राव ने मनमोहन सिंह को वित्त मंत्री बनाया तो उस समय उनसे कोई बहुत ज्यादा उम्मीद नहीं बांधी गई। बस इतना भर माना गया कि यह विनम्र शख्स सरकार की नीतियों को उसी तरह धीरे-धीरे आगे बढ़ाता रहेगा जिसके लिए इकनॉमिक सर्विस के अधिकारी जाने जाते हैं।
बड़े कदम उठाए
लेकिन राजनीति की पहली पारी खेल रहे मनमोहन सिंह भी ठान चुके थे और 24 जुलाई 1991 को देश को जो बजट मिला उसने रातों-रात सब कुछ बदल दिया। बजट का सबसे बड़ा मूलमंत्र था वित्तीय अनुशासन। इसके लिए वित्तीय घाटे को बहुत कम करने के बड़े कदम उठाए गए।
कई तरह की सब्सिडी खत्म कर दी गई। घाटे वाले सरकारी उपक्रमों को बेचने का सिलसिला शुरू किया गया। ज्यादातर क्षेत्रों में उद्योग लगाने के लिए लाइसेंस लेने की जरूरत खत्म कर दी गई। साफ था कि सरकार चाहती है कि ज्यादा से ज्यादा निवेश और उद्योग खुलें।
यह भी साफ था कि निवेश की जरूरतें सिर्फ इतने भर से पूरी नहीं होनी हैं इसलिए विदेशी निवेश के रास्ते खोल दिए गए बल्कि कुछ क्षेत्रों में तो विदेशी कंपनियों को 51 फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी अपने पास रखने के अधिकार भी दे दिए गए।
झेलना पड़ा विरोध
इन कदमों का खासा विरोध भी हुआ। विरोध करने वालों में विपक्षी दल ही नहीं थे बल्कि कांग्रेस के कई नेता भी थे। मनमोहन सिंह ने जो कदम उठाए उनमें से ज्यादातर वही थे जिनकी सिफारिश न जाने कितने समय से विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष कर रहे थे। वामपंथी दल तो इनसे नफरत करने की हद तक चले गए थे। दूसरी तरफ यह ऐसा मौका भी था जब उदारीकरण की नीतियों का विरोध करने के लिए वामपंथी और भारतीय जनता पार्टी के नेता एक ही मंच पर एक साथ खड़े थे।
लेकिन समर्थन तो दूर इस विरोध को आम लोगों की सहानुभूति भी नहीं मिली। जब ये सारे बदलाव हुए तो उनका एक सामाजिक आधार भी तैयार हो गया था। देश का मध्य वर्ग तब तक समाजवाद के नाम पर होने वाले सरकारीकरण से बुरी तरह उब चुका था।
सोवियत संघ के पतन के साथ ही दुनिया भर की साम्यवादी व्यवस्थाएं चरमराने लग गईं थीं और उन तरीकों को समर्थन मिलने लग गया था जिन्हें हम पूंजीवादी कह कर उनसे दूरी बनाए रखने को ही नैतिकता मानते थे। मध्य वर्ग समर्थन में था और बदलाव हुआ तो सबसे पहला फायदा इसी वर्ग को ही मिला।
बदला आर्थिक माहौल
कुछ ही साल में भारत का आर्थिक परिदृश्य पूरी तरह बदल गया। बदलाव के पहले तक हम ऐसे आर्थिक माहौल में थे जहां सारे महत्वपूर्ण क्षेत्र सरकार के हवाले थे। सरकार बिजली बनाती और उसे वितरित करती थी। सरकार ही दूरसंचार का काम देखती थी। ईंधन की आपूर्ति भी सरकार के जरिये ही होती थी। हवाई यात्राओं के लिए भी हम सरकारी क्षेत्र के ही भरोसे थे।
यह किल्लत का दौर था। हर चीज की किल्लत का दौर। टेलीफोन लेने के लिए आपको बरसों इंतजार करना होता था। स्कूटर या कार का इंतजार भी इतना ही लंबा था।
कुछ ही समय में यह सारा आलम तेजी से बदल गया। आज अगर आप की जेब में पैसे हों तो आप एक ही दिन में फोन का कनेक्शन भी हासिल कर सकते हैं और बाइक या कार भी। पहले जेब में पैसे होने के बावजूद आप यह न कर सकने को अभिशप्त थे। बात सिर्फ टेलीफोन, कार या स्कूटर की नहीं है, यही वह दौर था जब राशन की दुकानों के बाहर लगने वाली लाइने भी कम होनी शुरू हुईं।
उदारीकरण ने जिस स्पर्धा को जन्म दिया उसके बाद ऐसी किल्लत खत्म होनी ही थी।
अपने बजट भाषण के अंत में मनमोहन सिंह ने विक्टर हूगो के इस वाक्य का हवाला दिया था- “उस विचार को कोई नहीं रोक सकता जिसका कि समय आ गया है।” वास्तव में उदारीकरण के उस विचार का समय आ गया था इसलिए उसका बहुत तीखा विरोध करने वाले भी मौका पड़ने पर ठंड होते दिखाई दिए।
वाजपेयी भी इसी राह पर चले
इन नीतियों के खिलाफ सबसे तेज मुहिम चलाई थी संघ परिवार ने। उसने स्वदेशी आंदोलन चलाया और विदेशी व बहुराष्ट्रीय कंपनियों के सामान का बहिष्कार करने की अपीलें जारी कीं। लेकिन जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी तो उसने स्वदेशी धारा की ओर बढ़ने के बजाए उदारीकरण को तेजी से आगे बढ़ाने में ही दिलचस्पी दिखाई। बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश की इजाजत भी उन्हीं के समय मिली और कृषि जिन्सों की फारवर्ड ट्रेडिंग का पहला सिलसिला भी वहीं से बना।
वामपंथियों का रूख़
नरसिंह राव की सरकार एक संयोग से बनी थी, एक दूसरे संयोग से जब देश में मनमोहन सिंह की सरकार बनी तो उन्हें समर्थन देने वाले वही वामपंथी थे जिनके लिए उदारीकरण एक महापाप था। बाद में जब उन्होंने सरकार से समर्थन वापस लिया तो इसका कारण उदारीकरण की कोई नई नीति नहीं थी बल्कि उनकी आपत्ति यह थी कि भारत सरकार अमेरिका से परमाणु समझौता क्यों कर रही है।
वामपंथियों को इस सबकी क्या कीमत चुकानी पड़ी यह हम आज ज्यादा अच्छी तरह से देख सकते हैं।
समस्याएं बरकरार
24 जुलाई, 1991 को शुरू हुआ उदारीकरण का वह दौर भले ही फिर कहीं नहीं रुका लेकिन उसने देश की बहुत सारी उन समस्याओं को हल नहीं किया जिसकी उससे उम्मीद थी। इस उदारीकरण की वजह से देश की विकास दर भले ही दहाई अंक तक पहुंच गई लेकिन गरीबी उन्मूलन के हम कहीं पास भी नहीं फटक सके। यही वह दौर है जिसे जाँच बैलेंस ग्रोथ का दौर भी कहा जाता है। यानी जिस तरह से विकास दर बढ़ी उस तेजी से रोज़गार के नए अवसर नहीं बढ़े। विकास के कई फायदे नीचे तक पहुंचे लेकिन बहुत नीचे के कई वर्ग उससे अछूते रह गए।
ये खामियां बहुत बड़ी हैं इसलिए उन पर ध्यान देना भी बहुत जरूरी है। लेकिन आज कोविड के बाद अर्थव्यवस्था जिस तरह से डूब रही है 1991 के वे कदम प्रेरक बन सकते हैं, बशर्ते कोई उनसे सीखना चाहे।