संसदीय प्रणाली वाले भारतीय लोकतंत्र में पिछले करीब एक दशक से मुद्दों पर चेहरा भारी पड़ता रहा है।चाहे 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव रहे हों या राज्यों के विधानसभा चुनाव। चेहरा यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता व करिश्मे ने कई बार भाजपा को बढ़त दिलाई है।
लेकिन राज्यों के चुनावों में कई बार ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, अरविंद केजरीवाल, के.चंद्रशेखर राव, नवीन पटनायक, जगन मोहन रेड्डी के चेहरे अपने अपने राज्यों में मोदी के चेहरे और भाजपा पर भारी भी पड़े हैं।
यानी ज्यादातर चुनाव मुद्दों से ज्यादा प्रतिद्वंदी दलों के नेताओं के चेहरों के बीच हुए और जो चेहरा भारी पड़ा उसके दल को कामयाबी मिली। इसी साल हुए उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनावों में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चेहरों की संयुक्त लोकप्रियता सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव के और कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी के चेहरों की लोकप्रियता पर भारी पड़ी।पंजाब में अरविंद केजरीवाल और भगवंत मान के चेहरों ने कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया।
इन चुनावी नतीजों से सबक लेते हुए कांग्रेस ने गुजरात और हिमाचल प्रदेश के चुनावों को चेहरे की बजाय मुद्दों पर लड़ने की रणनीति अपनाई। गुजरात में पार्टी को पहले से ही अनुमान था कि वह कितना भी कर ले वहां उसे कामयाबी नहीं मिलनी है, इसलिए वहां का चुनाव पूरी तरह स्थानीय नेताओं और विधानसभा क्षेत्रों के उम्मीदवारों के भरोसे छोड़ दिया गया। चुनाव मोदी बनाम राहुल न बने तो राहुल गांधी की भारत जोड़ो पद यात्रा के मार्ग में गुजरात को शामिल नहीं किया गया। गांधी चुनाव प्रचार में सिर्फ एक दिन के लिए गुजरात गए जहां उन्होंने दो जनसभाओं को संबोधित किया।पार्टी के नए अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने काफी देर से कुछ दिनों तक चुनाव प्रचार किया।
इसके उलट कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश पर पूरा ध्यान केंद्रित करते हुए वहां चेहरे पर नहीं बल्कि उन मुद्दों को उठाने पर जोर दिया जो जनता के बीच बेहद ज्वलंत थे।यूं तो प्रियंका गांधी लगातार हिमाचल प्रदेश में प्रचार करती रहीं लेकिन कांग्रेस का पूरा प्रचार अभियान प्रियंका या किसी भी अन्य नेता पर केंद्रित होने की बजाय ओपीएस(पुरानी पेंशन योजना), सेना में भर्ती की अग्निवीर योजना, सेब किसानों के उत्पादों की पैकेजिंग पर जीएसटी, रसोई गैस और पेट्रोल डीजल की मंहगाई और बेरोजगारी पर केंद्रित रहा।
वहीं भाजपा ने पूरा चुनाव प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा और मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर पर केंद्रित रखा।भाजपा को सबसे ज्यादा मोदी की लोकप्रियता पर भरोसा था और उसका आकलन था सत्ता विरोधी रुझान जिसे एंटी इन्कमबेंसी कहा जाता है, पर मोदी करिशमा भारी पड़ेगा।खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चार लोकसभा सीटों वाले हिमाचल प्रदेश में छह चुनावी रैलियां की और हिमाचल से अपने पुराने रिश्तों का हवाला देकर अपने लिए वोट मांगा।
भाजपा के बागियों को मनाने की पहल भी खुद प्रधानमंत्री ने की। लेकिन चुनाव नतीजों में चेहरों पर मुद्दे भारी पड़े। हालांकि कांग्रेस और भाजपा को मिले मतों का अंतर महज 0.9 फीसदी ही है, लेकिन पिछले चुनावों की तुलना में भाजपा के मत प्रतिशत में पांच फीसदी की गिरावट भी आई है।
लेकिन गुजरात में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता, कड़ी मेहनत और गृह मंत्री अमित शाह का चुनाव प्रबंधन ने कांग्रेस की कथित लो प्रोफाईल चुनाव रणनीति को ध्वस्त कर दिया।भाजपा ने न सिर्फ कांग्रेस के माधव सिंह सोलंकी के 149 सीटों के रिकार्ड को तोड़ा बल्कि कांग्रेस को भी अब तक के सबसे न्यूनतम स्तर पर पहुंचा दिया।
अपनी रणनीति के अलावा भाजपा को कांग्रेस नेतृत्व और आम आदमी पार्टी को धन्यवाद देना चाहिए जिन्होंने गुजरात में उसे ऐतिहासिक जीत दर्ज करने का रास्ता आसान कर दिया। 2017 के विधानसभा चुनावों में 99 के फेर में फंसी भाजपा और मोदी-शाह की जोड़ी ने इस बार तय कर लिया था कि वह किसी भी तरह का कहीं कोई चूक नहीं होने देंगे जिससे भाजपा के हाथ से गुजरात की सत्ता फिसलने की सियासी दुर्घटना हो जाए।इसलिए भाजपा और खुद नरेंद्र मोदी और अमित शाह ने कोई भी ऐसा कोना नहीं छोड़ा जहां से घुसकर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी उसके खेल को बिगाड़ सके।
2017 में 99 सीटों के दूध से जली भाजपा ने 2022 के छाछ को फूंक फूंक कर पिया।वहीं कांग्रेस के 2017 में शानदार प्रदर्शन के बाद गुजरात की फाईल हमेशा की तरह अलमारी में बंद कर दी गई और उसे तब निकाला गया जब चुनाव में महज छह महीने बचे थे।कांग्रेस जिसे गुजरात की जनता ने 77 सीटें देकर एक मजबूत विपक्ष की भूमिका निभाने का जनादेश दिया था, इसमें पूरी तरह विफल रही थी।चुनाव के कुछ महीनों के भीतर ही उसके कई विधायक पाला बदल कर भाजपा में चले गए।संगठन की सक्रियता का आलम ये रहा कि लंबे समय तक पार्टी अध्यक्ष और प्रभारी विहीन रही। प्रभारी राजीव साटव के आकस्मिक निधन के बाद लंबे समय तक कांग्रेस ने किसी को गुजरात का प्रभारी तक नहीं बनाया।चुनाव से कुछ महीने पहले राजस्थान के मंत्री रघु शर्मा को यह जिम्मेदारी दी गई।पूरे पांच साल तक कांग्रेस ने न तो विधानसभा में और न ही सड़कों पर जनता के किसी भी मुद्दे को लेकर क आवाज उठाई या संघर्ष किया। यहां तक कि विधायक दल के नेता और कुछ अन्य विधायक चुनाव से ठीक पहले पाला बदलकर भाजपा में चले गए। ऐसी कमजोर और लड़खड़ाती मुद्दा विहीन चेहरा विहीन कांग्रेस पर मोदी शाह के नेतृत्व वाली भाजपा को भारी पड़ना ही था।
गुजरात के रण में अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी बड़े जोरशोर से कूदी। नगर निगम चुनावों में सूरत में मिली 28 सभासदों की जीत की कामयाबी से उसका हौसला बढ़ गया।आप ने पहले शिक्षा स्वास्थ्य और मुफ्त बिजली के मुद्दों पर भाजपा को चुनौती दी।उसकी इस चुनौती के जवाब में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी राज्य के स्कूलों में जाकर हालात का जायजा लेना पड़ा।आप के इन मुद्दों ने गुजरात में मोदी के चेहरे, गुजराती अस्मिता और हिंदुत्व के बल पर 27 साल से राज्य की सत्ता पर काबिज भाजपा को हिला दिया।लगा कि इस बार मुकाबला भाजपा बनाम आप हो जाएगा।लेकिन जल्दी ही आम आदमी पार्टी मुद्दों से हटकर अपने प्रमुख चेहरे अरविंद केजरीवाल पर आ गई।
उसे लगा कि मोदी के मुकाबले केजरीवाल का चेहरा और विकास के गुजरात मॉडल पर दिल्ली मॉडल भारी पड़ेगा।भाजपा के हिंदुत्व के मुकाबले के लिए आम आदमी पार्टी ने भारतीय रुपए पर गणेश लक्ष्मी के चित्र छापने की मांग शुरु कर दी।मुस्लिम परस्ती के आरोप से बचने के लिए बिलकिस बानो के दोषियों की रिहाई पर चुप्पी साध ली।यानी आप ने जनता के मुद्दों की बजाय भाजपा का मुकाबला उसके ही हथियार से करने की कोशिश की। नतीजा यह हुआ कि आप ने करीब 13 फीसदी वोट हासिल करके राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा तो पा लिया, लेकिन राज्य की राजनीति को विपक्ष विहीन भी कर दिया। उसके महज पांच विधायक जीते और तीस विधानसभा सीटों पर कांग्रेस के वोट विभाजित होने का फायदा सीधा भाजपा को मिला।
यह साबित हो गया गुजरात में मोदी से बड़ा चेहरा किसी भी दल के पास नहीं है और अगर भाजपा का मुकाबला करना है तो उसे चेहरे पर नहीं मुद्दों पर ही लड़ा जा सकता है जैसा कि कांग्रेस ने 2017 में किया था और हार के बावजूद उसने मोदी के चेहरे के बावजूद भाजपा की जीत बहुत कठिन कर दी थी।यही बात लोकसभा चुनावों में भी लागू होती है क्योंकि राष्ट्रीय स्तर पर भी नरेंद्र मोदी के मुकाबले कोई दूसरा लोकप्रिय चेहरा नहीं है और यह भाजपा की सबसे बड़ी ताकत है।ममता बनर्जी, नीतीश कुमार, अरविंद केजरीवाल, के.चंद्रशेखर राव, नवीन पटनायक, एम.के.स्तालिन, जगन मोहन रेड्डी क्षेत्रीय चेहरे तो हो सकते हैं लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर ये अभी मोदी का मुकाबला नहीं कर सकते हैं।
कांग्रेस ने इसे समझ लिया है। इसलिए राहुल गांधी खुद को चेहरा बनाने से ज्यादा जोर उन मुद्दों पर दे रहे हैं जिन्हें लेकर वह भारत जोड़ो पद यात्रा पर निकले हैं। इसे उनकी इस बात से भी समझा जा सकता है जब उन्होंने एक प्रेस कांफ्रेंस में एक सवाल के जवाब में कहा कि मैं राहुल गांधी को बहुत पीछे छोड़ आया हूं। आप अभी भी राहुल गांधी को देख रहे हैं।
राहुल कहते हैं कि उनकी भारत जोड़ो पद यात्रा किसी चुनावी या राजनीतिक उद्देश्य के लिए नहीं है बल्कि देश को भीतर से तोड़ने वाली विभाजनकारी विचारधारा और नीतियों के खिलाफ है तब इसका सीधा मतलब है कि वह मुद्दों पर जनता को गोलबंद करना चाहते हैं। इसीलिए हर जगह वह समाज में नफरत के साथ साथ महंगाई, बेरोजगारी, नोटबंदी जीएसटी के कारण पटरी से उतरी अर्थव्यवस्था, आदिवासी बनाम वनवासी जैसे मुद्दे भी लगातार उठा रहे हैं।राहुल गांधी को अहसास है कि उनकी यात्रा में जो उनके समर्थन के लिए भारी तादाद में लोग आ रहे हैं वो राहुल गांधी या किसी व्यक्ति के लिए नहीं बल्कि उन मुद्दों के लिए आ रहे हैं जो यात्रा में उठाए जा रहे हैं।
हिमाचल प्रदेश के चुनाव नतीजों ने मुद्दों की राजनीति को आगे बढ़ाने का रास्ता साफ किया है। कांग्रेस के साथ साथ बिहार के मुख्यमंत्री और जनता दल(यू) के नेता नीतीश कुमार ने भी मुद्दों के आधार पर विपक्षी एकता की बात कही है।नीतीश भी विपक्षी खेमे में नेता की बजाय मुद्दों पर जोर दे रहे हैं।इससे एक तरफ विपक्ष में नेता को लेकर होने वाले विवाद से बचा जा सकेगा तो दूसरी तरफ भाजपा के मोदी के मुकाबले कौन के राजनीतिक विमर्श की धार को भी कमजोर करके उसे मुद्दों पर घेरा जा सकेगा।इसलिए अगले लोकसभा चुनाव में मुकाबला चेहरा बनाम चेहरा नहीं बल्कि चेहरा बनाम मुद्दे बनाने की विपक्ष की पूरी कोशिश है।
(साभार - अमर उजाला)