2019 : सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बनाम जातीय समीकरण का चुनाव
लोकसभा चुनाव के सभी चरण समाप्त हो गए हैं और अब नतीजों का इंतजार है। इस चुनाव में बीजेपी स्पष्ट रूप से सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को राष्ट्रीयता का जामा पहना कर मैदान में उतरी तथा विपक्ष स्पष्ट रूप से जातीय समीकरण को संघीय व्यवस्था का मुखौटा पहनाकर। औसत भारतीय क्योंकि सज्जन तथा मासूम होता है, तो मतदान या तो राष्ट्रवाद अर्थात अधिक केन्द्रीकरण के पक्ष में हुआ या संघीय ढाँचा अर्थात अधिक विकेन्द्रीकरण के पक्ष में। बीजेपी ने भारतीयता का हवाला दिया तो विपक्ष ने क्षेत्रीयता का। सनद रहे कि हर नागरिक भारतीय होने के साथ-साथ समानांतर रूप से क्षेत्रीय भी होता है, क्योंकि वह भारत में भी रहता है, तथा किसी क्षेत्र में भी। भावनात्मक राष्ट्रवाद बनाम व्यावहारिक क्षेत्रवाद की बाइनरी में लोकमत का रुझान दोनों में से किसी भी ओर निर्णायक रूप से झुकने की पूरी संभावना रहती है।
भारतीय संविधान में राष्ट्र शब्द नदारद है तथा प्रथम अनुच्छेद में ही भारत को राज्यों का संघ बताया गया है, तथा 73वें संशोधन के बाद पंचायत राज कानून बना है, पर असलियत यह है कि छोटी स्थानीय इकाइयों को अधिकार देने या न देने का विशेषाधिकार विधानसभाओं के पास होने के चलते पंचायत राज की इकाइयाँ जनता की नहीं बल्कि सरकार की ही एजेंट बनने को बाध्य हैं।
कुल मिलाकर यह निर्विवाद है कि भारतीय लोकतंत्र में "लोक" को पांच साल में एक बार वोट के माध्यम से अपने अधिकार किसी प्रतिनिधि को देने के अलावा सत्ता में कोई और सहभागिता नहीं है। इस केन्द्रीकरण के चलते, भारत की विशालता के चलते, अनंत कार्यों को पूरा करने की संवैधानिक ज़िम्मेदारी के चलते, सरकारें अत्यधिक ओवरलोड हो जाती हैं तथा नतीजतन अव्यवस्था आ जाती है। अव्यवस्था आते ही लोकमानस में अनुशासन की चाह बढ़ने लगती है, क्योंकि अनुशासित माहौल में अव्यवस्था कम होती है।दूसरी तरफ़, सत्ता में आने के लिए लोकसभा में साधारण बहुमत भर सीटों का नियम तय किया गया है। चुनाव जीतने के लिए तो और सरल नियम हैं जो ख़ुद जीतने से अधिक दूसरों की हार में अपनी जीत सुनिश्चित करने भर की कवायद है।
आचार्य विनोबा भावे की भाषा में कुल मिलाकर चुनाव अर्थात संख्यासुर का पैदा होना है, 49=0 तथा 51=100 होना। ऐसी स्थिति में स्पष्ट है कि सभी राजनीतिक दल अपने अपने वोटबैंक बनाने की जुगत भर करेंगे। भारत में भी आजादी के पहले पचास वर्षों तक राजनीतिक दलों ने यही किया। इस कारण कुछ राजनीतिक दलों को लाभ यह हुआ कि उनके ठोस वोट बैंक तो बन गए मगर हानि यह हुई कि लोकहित से अधिक लोकप्रिय काम करने की मजबूरी भी आयी।
उदाहरण के लिए, भारत संभवतः विश्व का एकमात्र लोकतांत्रिक देश है, जहाँ सामान नागरिक संहिता नहीं है। पिछले 70 वर्षों में भारत में वामपंथी, दक्षिणपंथी, मध्यममार्गी, सभी तरह की सरकारें आयीं मगर समान नागरिक संहिता को किसी ने लागू नहीं किया। क्योंकि समान नागरिक संहिता आने से हर वर्ग के कुछ विशेषाधिकार कम होंगे और हर नागरिक में अधिक समानता आएगी। समान नागरिक संहिता आएगी तो हिन्दू कोड बिल की अनुपस्थिति में संपत्ति के विभाजन में पुरुषों की प्रधानता भी समाप्त होगी और मुसलिम पर्सनल लॉ के बग़ैर महिलाओं को समान अधिकार भी मिलेंगे। ऐसी कई विसंगतियों के चलते भारतीय समाज में जो अव्यवस्था आई उसे भुनाने हेतु नए राजनीतिक दल का उभरना स्वाभाविक ही था।
बीजेपी का उदय इसी परिस्थिति में हुआ जब भारतीय समाज अपने ढाई हजार वर्ष प्राचीन वैशाली गणराज्यों की विकेन्द्रित व्यवस्था, जिसमें व्यक्ति, परिवार, गाँव, क्षेत्र, राज्य, राष्ट्र, विश्व आदि की सप्त स्तरीय व्ययस्था, जिसमें हर इकाई को इकाईगत विषयों में निर्णय की पूर्ण स्वतंत्रता थी, उसे तिलांजलि देकर राष्ट्र राज्य व्यक्ति नामक ढाई इकाई की नई व्यवस्था आज़ाद भारत ने अपनाई।
बीजेपी की विचारधारा ही क्योंकि एकराष्ट्र-एकरूप पर आधारित है, सत्ता के केन्द्रीकरण की वकालत करती है, तो स्वाभाविक ही था कि बीजेपी के प्रति लोगों का आकर्षण बढ़े। इसीलिए 90 के दशक के बाद से बीजेपी की लोकप्रियता धीरे-धीरे ही सही, बढ़ती ही रही है, क्योंकि अव्यवस्था से परेशान लोग अनुशासन चाहते हैं भले ही वह छद्म तानाशाही ही क्यों न हो। यह स्थिति केवल भारत की नहीं अपितु आसपास के श्रीलंका, बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, ईरान, नेपाल, चीन, बर्मा आदि पर भी अक्षरश: सत्य है क्योंकि इन सब देशों में भी पिछले सात दशकों में तानाशाही के साथ प्रयोग हुए हैं।
डर के बिजनेस से बढ़ी लोकप्रियता
एक और महत्वपूर्ण बात यह भी है कि डर का बिजनेस करना सबसे आसान काम होता है। 2001 में अमरीका में हुए आतंकवादी हमलों के कारण इस्लाम के प्रति वैश्विक जनमानस में शंका उत्पन्न हुई। आम जनता को समझाना दुस्तर दुरूह है कि भारत, इंडोनेशिया आदि का सूफ़ी इस्लाम अरब के वहाबी इस्लाम से सर्वथा भिन्न भी है और सौम्य भी, और संघ को इस्लामोफ़ोबिया के डर को भुनाने के बिजनेस में क़रीब सौ साल का अनुभव भी है। बीजेपी की लोकप्रियता के बढ़ने में डर के बिजनेस का भी बड़ा हाथ है। तो ये तो हुई सामाजिक मनोविज्ञान की बात। परन्तु दूसरी तरफ़ समाज अर्थात मनुष्यों का समूह होता है, तथा हर मनुष्य की चेतना उत्तरोत्तर अधिकाधिक स्वतंत्रता की उत्कट चाह भी रखती है। अधिकाधिक स्वतंत्रता यानी तानाशाही के विपरीत दिशा। यानी सत्ता के विकेन्द्रीकरण की इच्छा, जो बीजेपी के मौलिक विचारों के विपरीत राह ले जाती है। इस चेतना की अभिव्यक्ति ही क्षेत्रीय दल हैं, जिनका उभार तथा लोकप्रियता भी 1990 के दशक के बाद ही बढ़ी है।
जहाँ बीजेपी अपने सत्ता के केन्द्रीकरण के सिद्धांत को राष्ट्रीयता के रूप में परोस रही है, वहीं क्षेत्रीय दल अपने विकेन्द्रीकरण के सिद्धांत को संघीय व्यवस्था के नारे द्वारा बुलंद कर रहे हैं।
धर्म और जाति को बनाया साधन
अपने-अपने साध्यों को प्राप्त करने के लिए बीजेपी ने धर्म को साधन बनाया तथा क्षेत्रीय दलों ने जाति को। क्योंकि जटिल सिद्धांतों को जनता में ग्राह्य बनाने हेतु उसका सरलीकरण करना दोनों की राजनीतिक मजबूरी भी है, तथा जनता का वोट जीतने हेतु आवश्यक भी। धर्म रक्षा के नाम पर बीजेपी लोगों में पैठ बनाती है तो उसके जवाब में स्वजातीय रक्षा के नाम पर क्षेत्रीय दलों का प्रत्युत्तर स्वाभाविक परिणति है।
सारांश यह है कि बीजेपी धार्मिक ध्रुवीकरण की फिराक में है तो विपक्ष जातीय समीकरण बिठाने की। दोनों ही क़वायदों से संख्यासुर ही पैदा होगा।
बेशक 23 तारीख़ को बीजेपी या विपक्ष 272 से अधिक सीट जीत जाएँगे, मगर वह भारत की कुल 130 करोड़ आबादी के चौथाई से भी कम जनता की अभिव्यक्ति होगी, सर्वमान्य नहीं होगी, सर्वसम्मत नहीं होगी, समन्वयक नहीं होगी, केवल सबसे बड़े संख्यासुर के वरदहस्त की परिचायक होगी, भविष्य में कटुता तथा वैमनस्य को बढ़ाने वाली होगी।23 मई को पैदा होने वाला यह अनोखा संख्यासुर कैसा होगा, इसका कुतूहल हम सबको है। यदि भारत की जनता ने मनोविज्ञान के वशीभूत होकर वोट दिया है तो वह साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के कारण होगा, डर के बिजनेस के सफलतापूर्ण बिकने के कारण होगा, सत्ता केन्द्रीकरण अर्थात तानाशाही की तरफ झुका होगा। लेकिन यदि भारत की जनता ने मानव सुलभ चेतना से वोट दिया होगा तो वह जातीय समीकरण के आधार पर होगा, डर से भिन्न होगा, सत्ता के विकेन्द्रीकरण अर्थात स्वराज्य की तरफ़ स्पष्ट रुख होगा।
बीजेपी की सीटों की संख्या उसे 2014 के अनुपात में मिले वोट प्रतिशत पर निर्भर करेगी। यदि उसे पूर्ववत 31% वोट मिले तो इस बार साझा विपक्ष के चलते 225 सीटें, वोट प्रतिशत में 5% वृद्धि हो तो 275 सीटें और यदि 10% वृद्धि हुई तो 300 से अधिक सीटें आएँगी।
लेकिन अगर वोट प्रतिशत 31% से घटकर अगर 29% हुआ तो उसे 180 सीटें, 27% हुआ तो 150 सीटें तथा 25% वोट हुआ तो 135 सीटें मिल सकती हैं। बीजेपी की प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस को 2014 में 20% वोट तथा 44 सीटें आयी थीं। कांग्रेस को यदि बीजेपी के खोये हुए वोटों में से 5% वोट मिल भी गए तो उसकी अधिकतम 135सीटें आएँगी। पिछली बार की तरह 20% वोट ही आये तब भी उसे इस बार 90 सीटें आएँगी।
वोट यदि धार्मिक ध्रुवीकरण के आधार पर पड़े हों तो बीजेपी को 40% से अधिक मत तथा 300 से अधिक सीटें आएँगी। परन्तु यदि वोट जातीय समीकरण पर पड़े हों तो एक तरफ़ जहाँ बीजेपी को न्यूनतम 135 सीटें अथवा अधिकतम 180 सीटें आएँगी, वहीं कांग्रेस को न्यूनतम 90 या अधिकतम 135 सीटें आएँगी। दोनों ही स्थिति में क्षेत्रीय दलों का वोट प्रतिशत 45% से अधिक होगा तथा क्षेत्रीय दलों को 250 से अधिक सीटें आएँगी। ऐसी स्थिति में भले ही राष्ट्रपति जिसे भी सरकार बनाने का पहला न्योता दें, अंततोगत्वा भारत में संघीय सरकार बनेगी जिसमें सभी ग़ैर बीजेपी दल या तो उसमें सहभागी होंगे, या उसके समर्थक।