2019: बीजेपी को ताक़त मिली तो झटके भी लगे, कांग्रेस-विपक्षी दल उभरे
सोशल मीडिया पर आजकल एक मैसेज बहुत चल रहा है साल 2019 के जाने और नए साल 2020 के आने का। मैसेज में लिखा है कि दोनों साल में सिर्फ़ 19-20 का फ़र्क है, ज़्यादा नहीं। आंकड़े के हिसाब से तो यह मैसेज ठीक है, लेकिन हम उम्मीद करते हैं कि अगला साल 2019 से बेहतर हो। खासतौर से देश के सामाजिक और आर्थिक हालात को लेकर। अर्थशास्त्रियों की बात को सच मानें तो सरकार को कुछ ठोस और कड़े क़दम उठाने की ज़रूरत होगी ताकि माली हालत ठीक हो सके।
राजनीतिक तौर पर यूं तो यह साल बीजेपी, कांग्रेस और दूसरे दलों के लिए ठीक ही रहा है क्योंकि बीजेपी की लगातार दूसरी बार केन्द्र में स्पष्ट बहुमत वाली सरकार पूरी ताक़त के साथ बनी है।
लेकिन विधानसभा चुनावों में झारखंड और महाराष्ट्र में उसे अपनी सरकार गंवानी पड़ी है। इसमें महत्वपूर्ण बात यह भी है कि इन दोनों राज्यों में बीजेपी को नुक़सान वोटर के कारण नहीं बल्कि बीजेपी नेताओं की रणनीति और अंहकार की वजह से उठाना पड़ा। कांग्रेस को भी राज्यों के बहाने ही सही पैर फैलाने का मौक़ा मिला है। इस साल उसे झारखंड में, महाराष्ट्र में सरकार में हिस्सेदारी मिली है और हरियाणा में भी उसने बेहतर प्रदर्शन किया है।
लोकसभा चुनाव 2019 में बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने नारा दिया था - अबकी बार, 300 पार। इस नारे पर पार्टी में भी बहुत से लोगों को भरोसा नहीं था लेकिन मोदी और शाह को उम्मीद थी कि पिछली बार से ज़्यादा सांसद जीतेंगे। इसी विश्वास का नतीजा रहा होगा कि 2019 के चुनाव नतीजों के आने से पहले 21 मई को दिल्ली में बीजेपी मुख्यालय में पिछली सरकार के मंत्रियों की विदाई के औपचारिक समारोह का आयोजन किया गया। इस समारोह में मोदी ने साफ़ संदेश दिया कि अगली सरकार में इनमें से ज़्यादातर चेहरे नहीं होंगे। मतलब नई सरकार में नए चेहरे होंगे।
यह आत्मविश्वास तब था जबकि पांच महीने पहले ही दिसम्बर, 2018 में हुए तीन राज्यों राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की सरकारें चली गई थीं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने चुनावों से पहले अपने सांसदों के कामकाज को लेकर जो अंदरूनी सर्वेक्षण करवाया था, उसमें 282 में से 150 सांसदों के ख़िलाफ़ नाराजगी बताई गई थी।
आम चुनावों से कुछ वक्त पहले 14 फरवरी, 2019 को कश्मीर के पुलवामा में हुए आंतकवादी हमले को लेकर भी देशभर में गुस्से का माहौल था, लेकिन सरकार ने जवाबी हमला करके देश में राष्ट्रवाद के नारे को ऊपर ला दिया।
वोट प्रतिशत में हुआ इज़ाफ़ा
साल 2019 के चुनाव में बीजेपी ने चुनाव में उतरने वाली सीटों में से 69 फ़ीसदी पर जीत हासिल की, जबकि 2014 में यह आंकड़ा करीब 66 फ़ीसदी था। बीजेपी को कुल मिले वोटों में भी पांच साल में खासा इज़ाफ़ा हो गया। 2014 में उसे कुल 31 फ़ीसदी मतदाताओं का समर्थन मिला था और पांच साल बाद बढ़ कर यह 37.4 फीसदी हो गया। साल 2019 में बीजेपी ने जिन 436 सीटों पर चुनाव लड़ा था, उनमें से 224 सीटों पर उसके उम्मीदवारों को पचास फ़ीसदी से ज़्यादा वोट मिले, जबकि 2014 में ऐसी सीटों की संख्या 136 थी। बीजेपी को देश के 17 राज्यों में पचास फ़ीसदी से ज़्यादा वोट मिले थे। इन चुनावों में बीजेपी के 75 फ़ीसदी उम्मीदवार एक लाख से ज़्यादा वोटों से जीते थे।
बीजेपी ने लोकसभा चुनाव से पहले तटवर्ती राज्यों पर ध्यान देने की योजना बनाई। इसमें पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, तेलंगाना जैसे राज्य शामिल थे। इसके साथ ही उत्तर-पूर्वी राज्यों पर भी उसकी खास नज़र थी। पूर्वी भारत में बीजेपी को 2014 के चुनावों में 105 में से सिर्फ़ 6 सीटें मिली थी। साल 2019 में उसने 30 सीटों पर कब्जा कर लिया।
लोकनीति और सीएसडीएस के चुनाव बाद हुए सर्वेक्षण से पता चलता है कि अगर नरेन्द्र मोदी पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नहीं होते तो बीजेपी समर्थकों में से 32 फ़ीसदी लोग बीजेपी को वोट नहीं देते जबकि साल 2014 के चुनावों में यह आंकड़ा 27 फ़ीसदी था। यानी मोदी नेता नहीं होते तो बीजेपी शायद सरकार बनाने में कामयाब नहीं होती।
वाजपेयी-आडवाणी के नेतृत्व तक बीजेपी को उत्तर भारत या हिन्दी पट्टी की पार्टी माना जाता था जिसमें गुजरात और महाराष्ट्र भी शामिल होते थे। यहां तक कि 2014 के चुनाव में भी बीजेपी ने 80 फ़ीसदी सीटें हिन्दी बेल्ट के अलावा महाराष्ट्र और गुजरात में ही जीती थीं लेकिन 2019 में वह पूरे भारत की पार्टी बन गई। इन चुनावों में उसने उत्तर-पूर्व के राज्यों के साथ-साथ पश्चिम बंगाल और उड़ीसा में भी जगह बना ली। दक्षिण में वह कर्नाटक के अलावा तेलंगाना में भी सीटें जीतने में कामयाब रही है।
एससी-एसटी वर्ग पर ढीली हुई पकड़
बीजेपी के लिए चिंता की बात होनी चाहिए कि अनुसूचित जाति और जनजाति (एससी-एसटी) वर्ग पर उसकी वोटों की हिस्सेदारी लगातार कम हो रही है। झारखंड के विधानसभा चुनावों में बीजेपी की हार का बड़ा कारण उसके हाथ से आदिवासी वोटों का फिसलना है। साल 2014 के विधानसभा चुनावों में वहां बीजेपी को आदिवासी सीटों में 11 सीटें मिलीं थी जो इस बार घटकर सिर्फ़ दो रह गईं। इससे पहले राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बीजेपी के सरकार गंवाने का बड़ा कारण एससी और एसटी वोट रहे। इन चार राज्यों की कुल 217 आरक्षित सीटों में से 70 फ़ीसदी सीटें बीजेपी हार गई जबकि पिछली बार इन्हीं राज्यों में से इन आरक्षित सीटों में उसे करीब साठ फ़ीसदी सीट हासिल हुई थीं।
पिछले एक साल में बीजेपी ने जिन पांच राज्यों में अपनी सरकार खोई हैं, उनमें लोकसभा की 127 और राज्यसभा की 51 सीटें आती हैं। इस वक्त भी राज्यसभा में बीजेपी के पास 83 और उसके सहयोगी दलों के पास 16 सीटें हैं यानी अभी निचले सदन में उसके पास बहुमत नहीं है। साल 2018 में बीजेपी का देश के करीब 70 फ़ीसदी इलाक़े पर शासन था और बीस राज्यों में उसकी सरकारें थीं अब वह घटकर 35 फ़ीसदी रह गया है और राज्य घट कर 15 हो गए हैं।
एजेंडे पर आगे बढ़ रही बीजेपी
पिछले एक साल में बीजेपी ने अपने राजनीतिक एजेंडे को काफी हद तक पूरा किया है। इसमें तीन तलाक़ पर क़ानून बनाने के बाद, कश्मीर से धारा 370 को ख़त्म करना और फिर सुप्रीम कोर्ट के रास्ते से राम मंदिर निर्माण का मसला हल होना शामिल है लेकिन इसके साथ ही बहुत से लोगों की चिंता शुरू हुई कि बीजेपी अपने हिंदुत्व के एजेंडे की ओर बढ़ रही है। लेकिन देश में ज़्यादातर फ़ैसलों को बेहतर तरीक़े से लिया गया और शांति बनी रही।
मगर जब सरकार ने नागरिकता संशोधन क़ानून को संसद में पास करा लिया और उसके साथ ही असम में एनआरसी का मामला चल रहा था तो एक बड़ी आबादी के भरोसे ने सरकार पर सवालिया निशान लगा दिया और देखते ही देखते देश भर में नागरिकता संशोधन क़ानून को लेकर आंदोलन और प्रदर्शन होने लगे।
इस सरकार में बहुत से लोग ऐसे हैं जिन्हें गुजरात का नवनिर्माण आंदोलन और फिर बिहार में जेपी की अगुवाई में हुआ छात्र आंदोलन याद होगा और यह भी समझ आता होगा कि छात्रों के आंदोलन को यदि वक्त रहते ठीक से नहीं संभाला गया तो उसके नतीजों पर फिर किसी का वश नहीं रहता है। कांग्रेस ही नहीं, बीजेपी के सहयोगी दलों की कई राज्य सरकारों ने भी इस क़ानून को लेकर सवाल उठाए हैं। प्रधानमंत्री के आश्वासन के बावजूद अभी मामला ठंडा नहीं हुआ है। कहा जाता है कि सरकार रुआब और विश्वास से चलती है। इस मसले पर सरकार का रुआब भले ही बना हुआ हो लेकिन विश्वास ज़रूर दरका है।
लोकतंत्र में “परसेप्शन” बहुत महत्वपूर्ण है। याद कीजिए 1990 में जब वीपी सिंह सरकार ने देश में मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने का एलान किया तो पूरा देश उबल पड़ा लेकिन उसी रिपोर्ट को जब नरसिंह राव सरकार ने लागू कर दिया तब कोई हंगामा नहीं हुआ।
आर्थिक मोर्चे पर हालात ख़राब
आमतौर पर चुनाव व्यक्ति की छवि और भावनात्मक मुद्दों पर लड़े और जीते जाते हैं। इस मामले में मोदी की इमेज के आगे फिलहाल कोई नहीं ठहरता लेकिन रोजमर्रा की ज़िंदगी में आर्थिक मसले अहम होते हैं। बेरोज़गारी एक बडा मुद्दा है। आर्थिक मंदी इस संकट को और गहरा कर देती है। सरकार के ही मुख्य आर्थिक सलाहकार रहे अरविंद सुब्रमण्यम ही जब इसे भारतीय अर्थव्यवस्था की आर्थिक मंदी कहें तो समझना चाहिए कि अब जागने का वक्त आ गया है।
कलाम का 2020 का विजन
साल 2020 आ गया है और मुझे याद आ रही है पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के उस 2020 विजन की, जिसे लगता है कि सरकारों ने अपने एजेंडे के आगे भुला दिया है। 2002 में योजना आयोग ने एक विजन रोडमैप तैयार किया था, तब केन्द्र में एनडीए की सरकार थी और अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री थे। 2020 के विजन पर हम कहां तक पहुंचे हैं, यह देखना सरकार का काम है। इतना तय है कि उससे मौजूदा सरकार के विकास के एजेंडे को आगे बढ़ाने में मदद ही मिलेगी।
साल 2019 जाने के दो दिन पहले जब रांची में हेमंत सोरेन झारखंड के 11 वें मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ले रहे थे तो वह सिर्फ़ एक राज्य में सरकार बनने की औपचारिकता भर नहीं थी। दिल्ली को जब सर्दी के कुहासे, धुंधलके में संसद भवन और रायसीना हिल को जाती सड़क साफ दिखाई नहीं नहीं दे रही थी, उस वक्त रांची के मोरहाबदी मैदान में विपक्षी एकता का सूरज चमकने लगा था।
प्रधानमंत्री मोदी ने 2019 का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद ‘सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास’ का नारा दिया था। सरकार उस रास्ते पर ही आगे बढ़ने की तैयारी कर रही होगी। बीजेपी अपने राजनीतिक एजेंडे पर भी आगे चले तो शायद किसी को आपत्ति नहीं होगी लेकिन इतना याद रहे तो बेहतर होगा कि देश ने बीजेपी को विकास के लिए वोट दिया है।