प्रेमचंद 140 : नौवीं कड़ी :क्या क्रांतिकारी हिंसा जीवन के प्रति प्रेम को जन्म देती है?
‘क़ायदे से हमें कहना चाहिए कि हत्या और विद्रोह एक दूसरे से विरोधी हैं।’ अगर हम नहीं हैं तो मैं नहीं हूँ।
विद्रोह को अनिवार्यतः हत्या का विरोध करना चाहिए क्योंकि उसूलन विद्रोह (इस तरह की) मौत के ख़िलाफ़ प्रतिरोध है।
(अल्बेयर कामू अपने निबंध ‘विद्रोही’ में)
प्रेमचंद और अल्बेयर कामू (कैम्यू) के दरम्यान आख़िर कौन सी बात साझा हो सकती है दोनों दो ज़माने और दो दुनियाओं के लेखक हैं। दो बिल्कुल अलग मिजाज़ के भी। कामू का एक नाटक है ‘ न्यायी हत्यारे’ या ‘हत्यारे'। प्रेमचंद ने एक कहानी लिखी ‘कातिल'। कामू का नाटक क्रांतिकारी हिंसा या राजनीतिक हिंसा का प्रश्न उठाता है। राजनीतिक या क्रांतिकारी हिंसा, कितने ही जायज़ और पाक मक़सद के लिए क्यों न की जा रही हो, मानवीय बिरादरी के उद्देश्य को क्षति पहुँचाती है। प्रत्येक क्रांति घोषित करती है कि वह मानवीय समाज के स्वप्न के प्रति समर्पित है। फिर वह जिसकी हत्या करती है, उसे तो इस बिरादरी में जगह नहीं ही दे पाती।
‘न्यायी हत्यारे’
‘न्यायी हत्यारे’ एक क्रांतिकारी समूह की कहानी है। कालियालेव, स्तेपान, अन्नेकोव और डोरा क्रांतिकारी दल के सदस्य हैं जो ड्यूक की हत्या की योजना बना रहे हैं। कालियालेव को यह काम करना है। वह अपने मिशन को निकलता तो है, लेकिन बिना बम फेंके लौट आता है। ड्यूक के साथ उसका भतीजा और भतीजी थे और ख़तरा था कि वे भी बम का शिकार हो जाएँ।कालियालेव की इस ‘मानवता’ पर समूह में तीखी बहस होती है। समूह के अन्य सदस्य तो उससे सहमत हैं, लेकिन स्तेपान इस भावुकता का मज़ाक़ उड़ाता है। दो बच्चों को क्रांति के लिए बलि चढ़ाया जा सकता है, कालियालेव को यह विचार घृणित लगता है। साध्य कितना ही ऊँचा हो, अपवित्र साधन को उचित नहीं ठहरा सकता।
वह दुबारा अपने मिशन पर जाता है। इस बार ड्यूक अकेला है। कालियालेव के फेंके बम से वह मारा जाता है। कालियालेव भागने की कोशिश नहीं करता। उसकी गिरफ़्तारी होती है। बाद में वह पुलिस से किसी भी तरह की सौदेबाज़ी से इनकार कर देता है। यहाँ तक कि डचेज, ड्यूक की पत्नी, के माफ़ी के प्रस्ताव को वह ठुकरा देता है। उसने हत्या की है, लेकिन वह खुद को क़ातिल नहीं मानना चाहता और यह तभी हो सकता है कि ली गई जान की कीमत वह अपनी जान से चुकाए।
इस तरह कालियालेव स्तेपान से अलग है। स्तेपान ऐसा क्रांतिकारी है जिससे प्रत्येक प्रकार की मानवीयता का लोप हो गया है। उसके व्यक्तित्व को उसके सबसे बड़े मक़सद क्रांति ने सोख लिया है। वह मानवीय बंधुत्व के विचार में विश्वास नहीं करता। उसके लिए कुछ भी वर्जनीय नहीं है।
इस दल का दूसरा सदस्य अन्नेकोव स्तेपान के इस रवैय्ये का विरोधी है,
‘तुम्हें यह नहीं कहना चाहिए कि हर चीज़ जायज़ है, आख़िर हममें से हज़ारों सिर्फ़ यही बताने को मारे गए हैं कि हर चीज़ जायज़ नहीं है।’
स्तेपान अविचलित है,
‘सिर्फ़ उसी दिन क्रांति विजयी हो सकती है जब हम बच्चों को लेकर भावुक होना बंद कर दें, और तभी हम संसार के स्वामी होंगे …. क्रांति के रास्ते में किसी भी चीज़ से इंकार नहीं किया जा सकता …किसी तरह की कोई सीमा नहीं है।’
भारत में मुक्ति या क्रांति के नाम पर हिंसा की वैधता को लेकर तीखी बहस रही है। हिंसक क्रांति या विद्रोह का विचार घातक रूप से आकर्षक बना हुआ है। भारत में एक हीन भावना अंग्रेज़ों से मिली आज़ादी को लेकर भी है। उसे अहिंसक मानते ही वह किंचित् हीन हो उठती है। इसी कारण सावरकर की पूजा एक बड़ी आबादी करती है। सावरकर में स्तेपान का एक पक्ष है। हत्या की ज़िम्मेवारी से बचने का और स्वयं किसी भी प्रकार की क़ीमत चुकाने से बच जाने की चतुराई।
साधन की पवित्रता के गांधी के आग्रह को न सिर्फ़ सावरकरवादी, बल्कि वामपंथी क्रांतिकारी भी मूर्खता या भोलापन मानते हैं।
हिंसा की अस्वीकार्यता
गांधी के साधन की पवित्रता और हिंसा की किसी भी रूप में अस्वीकार्यता के ख़िलाफ़ उनके समकालीन क्रांतिकारियों ने बहस की थी। भगत सिंह के समूह का पर्चा ‘बम का दर्शन’ गाँधी के ‘भावुकतावाद’का उत्तर ही था।
प्रेमचंद के साहित्य में हिंसा और अहिंसा के प्रश्न पर बाक़ायदा कोई चर्चा नहीं मिलती। वे गांधी के रास्ते को सही मानते थे, इस पर ख़ासी बहस है।
शिवरानी देवी ने उनसे अपनी बातचीत का हवाला दिया है कि कैसे वे गाँधी को देखे बिना उनके ‘चेले’ हो गए थे। वे गांधीवादी थे या उनसे ‘आगे बढ़ गए थे, यह हमारे लिए अभी विचारणीय नहीं है। अभी तो सिर्फ़ यह कि प्रेमचंद को पढ़ते हुए कामू की याद क्यों आई!
प्रेमचंद की कहानी ‘कातिल’ उनकी शाहकार कहानियों में नहीं गिनी जाती। लेकिन यह भी उसी बहस को उठाती है जो कामू के नाटक ‘न्यायी हत्यारे’ की है। यह एक बेवा माँ और उसके क्रांतिकारी बेटे की कहानी है। माँ सरल हृदय है। लेकिन राजनीतिक व्यक्ति है: वह भी ऐसी जो अपनी राजनीति के विषय में सोचती है और कुछ अपना विचार भी रखती है:
‘बूढ़ी विधवा आजादी की लड़ाई में दिलो-जान से शरीक थी। दस साल पहले उसके पति ने एक राजद्रोहात्मक भाषण देने के अपराध में सजा पाई थी। जेल में उसका स्वास्थ्य बिगड़ गंया और जेल ही में उसका स्वर्गवास हो गया। तब से यह विधवा बड़ी सच्चाई और लगन से राष्ट़ की सेवा में लगी हुई थी। शुरू में उसका नौजवान बेटा भी स्वयंसेवकों में शामिल हो गया था। मगर इधर पाँच महीनों से वह इस नयी सभा में शरीक हो गया और उसको जोशीले कार्यकर्ताओं में समझा जाता था।’
उसका बेटा धर्मवीर एक नयी सभा में शामिल हो गया है। कहानी में कहीं भी इसका ज़िक्र नहीं आता कि माँ किस तरह राष्ट्रसेवा कर रही थी, लेकिन संकेत है कि वह गांधी द्वारा प्रेरित सविनय अवज्ञा या असहयोग के आन्दोलन में शरीक है। बेटा अब एक गुप्त सभा में शामिल हो गया है। माँ और बेटा वैचारिक रूप एक दूसरे के विरोधी हैं:
‘माँ ने संदेह के स्वर में पूछा – ‘तो तुम्हारी सभा का कोई दफ़्तर हैं’
‘हाँ है।’
‘उसमें कितने मेम्बर हैं’
‘अभी तो सिर्फ़ पचीस मेम्बर हैं। वह पचीस आदमी जो कुछ कर सकते हैं, वह तुम्हारे पचीस हजार भी नहीं कर सकते। देखो अम्मां, किसी से कहना मत वर्ना सबसे पहले मेरी जान पर आफ़त आयेगी। मुझे उम्मीद नहीं कि पिकेटिंग और जुलूसों से हमें आजादी हासिल हो सके। यह तो अपनी कमज़ोरी और बेबसी का साफ़ एलान हैं। झंडियाँ निकालकर और गीत गाकर कौमें नहीं आज़ाद हुआ करतीं। यहाँँ के लोग अपनी अकल से काम नहीं लेते। एक आदमी ने कहा - यों स्वराज्य मिल जाएगा। बस, आँखें बन्द करके उसके पीछे हो लिए। वह आदमी गुमराह है और दूसरों को भी गुमराह कर रहा है। यह लोग दिल में इस ख्याल से खुश हो लें कि हम आज़ादी के करीब आते जाते हैं। मगर मुझे तो काम करने का यह ढंग बिल्कुल खेल-सा मालूम होता है। लड़कों के रोने-धोने और मचलने पर खिलौने और मिठाइयाँ मिला करती है - वही इन लोगों को मिल जाएगा। असली चीज तो तभी मिलेगी, जब हम उसकी कीमत देने को तैयार होंगे।’
माँ ने कहा - उसकी कीमत क्या हम नहीं दे रहे हैं हमारे लाखों आदमी जेल नहीं गये हमने डंडे नहीं खाये हमने अपनी जायदादें नहीं जब्त करायीं’
बेटा इस तरह जेल जाने और अपनी सम्पत्ति ज़ब्त कराने के त्याग को मूर्खता मानता है: शत्रु की हत्या जायज़ है:
‘धर्मवीर-इससे अंग्रेजों को क्या-क्या नुक़सान हुआ वे हिन्दुस्तान उसी वक़्त छोड़ेगे, जब उन्हें यकीन हो जाएगा कि अब वे एक पल-भर भी नहीं रह सकते। अगर आज हिन्दोस्तान के एक हजार अंग्रेज क़त्ल कर दिए जायँँ तो आज ही स्वराज्य मिल जाय। रूस इसी तरह आज़ाद हुआ, आयरलैंड भी इसी तरह आज़ाद हुआ, हिन्दोस्तान भी इसी तरह आज़ाद होगा और कोई तरीका नहीं। हमें उनका ख़ात्मा कर देना है। एक गोरे अफसर के कत्ल कर देने से हुकूमत पर जितना डर छा जाता है, उतना एक हजार जुलूसों से मुमकिन नहीं।”
लोक-नैतिकता का आधार : मनुष्यता
बेटे ने जितनी बेपरवाही से हत्या को उचित ठहराया, उससे माँ थरथरा उठी। खून या हत्या के विचार से ही उसे घृणा थी:‘कहीं ऐसा तो नहीं कि वह किसी का क़त्ल कर आया हो। या क़त्ल करने जा रहा हो। इस विचार से उसके शरीर के कंपकंपी आ गयी। आम लोगों की तरह हत्या और खून के प्रति घृणा उसके शरीर के कण-कण में भरी हुई थी। उसका अपना बेटा खून करे, इससे ज्यादा लज्जा, अपमान, घृणा की बात उसके लिए और क्या हो सकती थी।’
क्या सचमुच आम लोगों में हत्या के प्रति घृणा होती है, जैसा इस लेखकीय टिप्पणी में माना गया है या यह लोक-नैतिकता का आधार है जिससे वे जितना खिसकते हैं, उतना ही कम मनुष्य रह जाते हैं। जितना हत्या का विचार घृणित है, उससे अधिक यह कि उसकी कोई क़ीमत न दी जाए। माँ बेटे से ख़तरा मोल न लेने की विनती करती है:
'मैं तुम्हारे पैरों में पड़ती हूँ, इस सभा से अपना नाम कटवा लो। खामखाह आग़ में न कूदो। मैं अपनी आँखों से यह दृश्य नहीं देखना चाहती कि तुम अदालत में खून के जुर्म में लाए जाओ।
धर्मवीर पर इस विनती का कोई असर नहीं हुआ। बोला- इसका कोई डर नहीं। हमने इसके बारे में काफ़ी एहतियात कर ली है। गिफ़्तार होना तो बेवकूफ़ी है। हम लोग ऐसी हिकमत से काम करना चाहते हैं कि कोई गिरफ़्तार हो।'
बेटे का यह जवाब क्रांतिकारी रणनीति के विचार से उचित है। हत्या करके भाग खड़ा होना, उसके लिए कोई जवाबदेही न लेना। लेकिन समाज तो हत्या या हिंसा को सबसे बड़ा अपराध मानता है और उसके लिए किसी न किसी को जवाब देना ही होता है। बेटे की यह नैतिक बेपरवाही माँ के लिए अधिक लज्जास्पद है। यह तो कायरता और धोखा है। यह मुक्ति जैसे महान उद्देश्य से किसी भी तरह मेल नहीं खाता:
‘माँ के चेहरे पर अब डर की जगह शर्मिंन्दगी की झलक नज़र आयी। बोली – यह तो उससे भी बुरा है। बेगुनाह सज़ा पायें और क़ातिल चैन से बैठे रहें! यह शर्मनाक हरकत है। मैं इसे कमीनापन समझती हूँ। किसी को छिपकर क़त्ल करना दगाबाजी है, मगर अपने बदले बेगुनाह भाइयों को फँसा देना देशद्रोह है। इन बेगुनाहों का खून भी कातिल की गर्दन पर होगा।
धर्मवीर ने अपनी माँ की परेशानी का मजा लेते हुए कहा - अम्मां, तुम इन बातों को नहीं समझती। तुम अपने धरने दिए जाओ, जुलूस निकाले जाओ। हम जो कुछ करते हैं, हमें करने दो।
गुनाह और सवाब, पाप और पुण्य, धर्म और अर्धम, यह निरर्थक शब्द है। जिस काम को तुम सापेक्ष समझती हो, उसे मैं पुण्य समझता हूँ। तुम्हें कैसे समझाऊँ कि यह सापेक्ष शब्द हैं। तुमने भगवदगीता तो पढ़ी है। कृष्ण भगवान ने साफ़ कहा है - मारने वाला मैं हूँ, जिलाने वाला मैं हूँ, आदमी न किसी को मार सकता है, न जिला सकता है। फिर कहाँ रहा तुम्हारा पाप मुझे इस बात की क्यों शर्म हो कि मेरे बदले कोई दूसरा मुजरिम करार दिया गया। यह व्यक्तिगत लड़ाई नहीं, इंग्लैण्ड की सामूहिक शक्ति से युद्ध है। मैं मरूँ या मेरे बदले कोई दूसरा मरे, इसमें कोई अन्तर नहीं। जो आदमी राष्ट़ की ज्यादा सेवा कर सकता है, उसे जीवित रहने का ज्यादा अधिकार है।’
नैतिक मान्यता
माँ की नैतिक मान्यता बेटे से बिल्कुल भिन्न है:‘वह राष्ट़ सेवा की उस कसौटी पर जान देती थी जो त्याग, सदाचार, सच्चाई और साफ़दिली का वरदान है। उसकी आँखों मे राष्ट़ का सेवक वह था जो नीच से नीच प्राणी का दिल भी न दुखाये, बल्कि ज़रूरत पड़ने पर खुशी से अपने को बलिदान कर दे।
अहिंसा उसकी नैतिक भावनाओं का सबसे प्रधान अंग थी। अगर धर्मवीर किसी ग़रीब की हिमायत में गोली का निशाना बन जाता तो वह रोती ज़रूर मगर गर्दन उठाकर। उसे गहरा शोक होता, शायद इस शोक में उसकी जान भी चली जाती। मगर इस शोक में गर्व मिला हुआ होता। लेकिन वह किसी का खून कर आये यह एक भयानक पाप था, कलंक था।’
माँ बेटे को खून करने से कैसे रोके वह उसे फाँसी के तख़्ते पर नहीं देखना चाहती, लेकिन उसे यह भी बर्दाश्त नहीं कि उसके जुर्म की सज़ा बेगुनाहों को मिले।
यह सारी बहस सिर्फ़ हत्या या हिंसा करने न करने तक सीमित नहीं है, उससे आगे ज़िम्मेदारी के सवाल तक जाती है। उससे भी गहरी बहस का यहाँ संकेत है। आख़िर यह संघर्ष ही क्यों है क्या अंग्रेज़ों से घृणा के कारण
क्या तुम समझते हो, अंग्रेजों को कत्ल कर देने से हम आज़ाद हो जायेंगे हम अंग्रेजों के दुश्मन नहीं। हम इस राज्य प्रणाली के दुश्मन हैं। अगर यह राज्य-प्रणाली हमारे भाई-बन्दों के ही हाथों में हो-और उसका बहुत बड़ा हिस्सा है भी-तो हम उसका भी इसी तरह विरोध करेंगे।
माँ के मुँह से कही गई इस बात में सम्भव है कोई दार्शनिक गहराई न दिखलाई पड़े, लेकिन इसे अगर ज़ारशाही के ख़िलाफ़ आतंक के रास्ते क्रांति के भीतर चल रही बहस के साथ मिलकर पढ़ा जाए तो इसके मानी खुलते हैं। संघर्ष तो एक अहिंसक व्यवस्था के लिए है। अहिंसा मात्र सीधी हिंसा का निषेध नहीं। वह मानवीय गरिमा और स्वाधीनता के सिद्धांतों को सर्वोपरि मानकर ही खुद को सिद्ध कर सकती है।
देखा यह गया कि हिंसा के रास्ते जो राज्य क़ायम होता है, वह वर्चस्व और प्रभुत्व और इंसानी समाज में श्रेष्ठ और हीन के रिश्ते को और सख़्त कर देता है। क्या यह क्रांतिकारी हिंसा जीवन के प्रति प्रेम को जन्म देती है
फ्रांसीसी लेखक सीमोन वील की कसौटी है:
‘अपने भीतर ज़िंदगी की मुहब्बत को बरक़रार रखना, बिना खुद के लिए मौत को क़बूल किए किसी की मौत के बारे में न सोचना….’
गांधी की अहिंसा का सिद्धांत कामू के विचार से कहीं अधिक जटिल है। किसी की हत्या का जवाब अपने प्राणों का उत्कर्ष नहीं।
वह ज़िम्मेवारी के सवाल को तो थोड़ा सुलझा देता है, लेकिन यह नहीं बताता कि एक जीवन जो ख़ास वही है, उससे अलग नहीं, उसका बदला दूसरे जीवन से कैसे दिया जा सकता है
मतभेद रखने का अधिकार
प्रेमचंद की कहानी में बेटे के आगे लाचार माँ उसके दल में शामिल हो जाती है। आख़िर परीक्षा की घड़ी आ जाती है। एक पुलिस अफ़सर की हत्या का फ़ैसला होता है। उस अफ़सर ने कुछ ऐसा नहीं किया है कि उसका क़त्ल किया जाए। माँ के इस सवाल का जवाब पहले की तरह नैतिक बाधा से मुक्त है,'दोनों घर पहुँचे तो माँ ने पूछा - क्यों बेटा, इस अफ़सर ने तो कोई ऐसा काम नहीं किया फिर सभा ने क्यों उसको चुना
धर्मवीर माँ की सरलता पर मुस्कराकर बोला - हमारे लिए तो इतना ही काफ़ी है कि वह उस मशीन का एक खास पुर्जा है जो हमारे राष्ट्र को चरम निर्दयता से बर्बाद कर रही है। लड़ाई में व्यक्तिगत बातों से कोई प्रयोजन नहीं, वहाँ तो विरोध पक्ष का सदस्य होना ही सबसे बड़ा अपराध है।'
बेटा इस दल से अलग नहीं हो सकता मिशन पर माँ-बेटे साथ हैं। साहब की गाड़ी सामने से निकलती है :
‘धर्मवीर ने क़हक़हा मारकर कहा - यह तो तुमने बेढब सवाल किया, अम्मां। तुम जानती हो इसका नतीजा क्या होगा जिन्दा लौटकर न आऊँगा। अगर यहाँ से कहीं भाग जाऊँ तो भी जान नहीं बच सकती। सभा के सब मेम्बर ही मेरे खून के प्यासे हो जायेंगे और मुझे उनकी गोलियों का निशाना बनना पड़ेगा।’
क्रांतिकारी दलों में इसकी इजाज़त नहीं कि आप मतभेद व्यक्त करें और फिर भी आज़ाद रहें। बल्कि आप अपने जीवन का अधिकार भी खो बैठते हैं।
साहब की गाड़ी सामने से निकलती है:
‘झाड़ी में पहुचकर दोनों चुपचाप बैठ गये। कोई आध घंटे के बाद साहब की मोटर निकली। धर्मवीर ने ग़ौर से देखा। मोटर की चाल धीमी थी। साहब और लेडी बैठे थे। निशाना अचूक था। धर्मवीर ने जेब से रिवाल्वर निकाला। माँ ने उसका हाथ पकड़ लिया और मोटर आगे निकल आयी।
धर्मवीर ने कहा - यह तुमने क्या किया अम्मां! ऐसा सुनहरा मौक़ा फिर हाथ न आयेगा।
माँँ ने कहा - मोटर में मेम भी थी। कहीं मेम को गोली लग जाती तो
‘तो क्या बात थी। हमारे धर्म में नाग, नागिन और सपोले में कोई भी अन्तर नहीं।’
माँँ ने घृणा भरे स्वर में कहा - तो तुम्हारा धर्म जंगली जानवरों और वहशियों का है, जो लड़ाई के बुनियादी उसूलों की भी परवाह नहीं करता। स्त्री हर एक धर्म में निर्दोष समझी गयी है। यहाँ तक कि वहशी भी उसका आदर करते हैं।
‘वापसी के समय हरगिज न छोडूंगा।’
‘मेरे जीते-जी तुम स्त्री पर हाथ नहीं उठा सकते।’
‘मैं इस मामले मे तुम्हारी पाबन्दियों का ग़ुलाम नहीं हो सकता।’
यह बहस कालियालेव और स्तेपान की बहस की याद दिला देती है।
साहब जब अकेले लौटता है तो धर्मवीर गोली चला देता है। माँ गाड़ी के सामने आ जाती है और गोली उसे लग जाती है। माँ बेटे को उस अपराध से बचा लेती है जो उसकी निगाह में पाप है।
अंत सरल है। लेकिन कहानी के भीतर के ये सवाल उतने ही मुश्किल बने हुए हैं जितने तब थे और उनका प्रेमचंद या गांधी की तरह समाधान करने का सरल साहस हमारे पास नहीं है।