प्रेमचंद 140 : 21 वीं कड़ी : भारतीय जीवन पद्धति को पूरी तरह बदल देना चाहते थे प्रेमचंद
'आजकल गाँवों में अस्पृश्यता लगभग लुप्त हो गई है। सब कुछ सचमुच बदल गया है! अब तो वे गाँव की अनाज पीसनेवाली मशीन पर हमें अपने अनाज भी पीसने देते हैं!' नलिता ने कहा।
मैं ओडिशा के तटवर्ती ज़िले में हाड़ी समुदाय की एक सदस्य से यह सुनकर थोड़ा हैरान रह गई। क्या यह सच हो सकता है ...मैंने कुछ और कुरेदने का निश्चय किया।
'तो तुम कह रही हो कि जब भी तुम जाओ वे तुम्हें अनाज पीसने देते हैं।'
बिनोद इस मूर्खतापूर्ण प्रश्न पर झुँझला गया। उसने कहा, 'नहीं। वे ऐसा कैसे कर सकते हैं हम हर सोमवार को 12 बजे दिन के पहले जाते हैं। तब उन्हें कुछ वक्त मिल जाता है कि वे मशीन को धोकर सुखा सकें ताकि फिर दूसरे लोग अपना अनाज पीस सकें।'
वे कौन हैं अगर यह सोमवार न हो तो अगर 12 बजे के बाद जाएँ तो इन प्रश्नों के उत्तर का अंदाज किया जा सकता है।...जिन लोगों से मैं बात कर रही थी वे तयशुदा दिन और वक्त के अलावा और कभी दूकान के आसपास फटकेंगे भी नहीं। उन्हें अपनी ‘जगह’ अच्छी तरह पता है।...
हाड़ीओडिशा की अनुसूचित जातियों में से एक है। जब आप गाँव के मुख्य भाग से निकलकर आगे खाली जगह की तरफ बढ़ते हैं तो उनका टोला मिलता है। जिस गाँव में मैंने इस बैठक में हिस्सा लिया, उनकी एक प्रमुख समस्या थी पीने का साफ़ पानी। हालाँकि बीच गाँव में पहले से एक बड़ा कुआँ है। लेकिन वे अपने लिए अलग से एक कच्चा कुआँ चाहते थे। मेरे शहरी दिमाग को जो ज़्यादा आसान मालूम पड़ता है, वह उस रास्ते नहीं जाना चाहते। उन्हें मालूम है कि उसमें बहुत झंझट है। 'और किराने का सामान कैसे खरीदते हैं'मैंने आगे पूछा। दुकानदार सामने लकड़ी पर सारा सामान रख देता है जो हम लेते हैं और हम वहाँ से उठा लेते हैं। हम भी उसी तरह वहीं पैसा रख देते हैं।...'
लुप्त अस्पृश्यता
नयना सामाजिक क्षेत्र में काम करती हैं और यह ब्योरा ओडिशा में काम करने के दौरान जो उन्होंने देखा उसी का एक हिस्सा है। अपनी बात जारी रखते हुए वे एक दूसरे गाँव में बच्चों से बातचीत का जिक्र करती हैं,
'तुम्हें सबसे ज्यादा बुरी बात क्या लगती है' उन्होंने बच्चों से पूछा।
'वे पूजा में सरस्वती की प्रतिमा पर फूल भी नहीं चढ़ाने देते।'
आखिर ये बच्चे इस एक बात से क्यों सबसे ज्यादा परेशान हैं मेरा शहरी दिमाग हैरान था। स्कूल में उन्हें बगल के सोते या नदी में जाकर खाना पकाने के बरतन धोने पड़ते हैं, उन्हें स्कूल में झाडू लगाना पड़ता है, उन्हें जाति का नाम लेकर (भारत में यह क़ानूनन जुर्म है) गाली दी जाती है, लेकिन इसी एक घटना से वे सबसे दुखी क्यों हैं
‘हर कोई अच्छा अच्छा कपड़ा पहनता है। हर कोई खुश रहता है। हर कोई प्रार्थना करता है कि अच्छी तरह पढ़ सकें, प्रार्थना करता है कि पास हो सके। क्या हमको वह आशीर्वाद नहीं मिलना चाहिए'
नयना अपने बचपन को याद करती हैं, सरस्वती पूजा स्कूल के वार्षिक दिवस की तरह ही सबसे महत्त्वपूर्ण दिन हुआ करता था। उन्होंने खुद स्कूल में कभी पूजा नहीं की। उनके लिए लेकिन यह कोई ख़ास बात न थी क्योंकि वे चाहतीं तो उन्हें पूजा से रोका नहीं जा सकता था। लेकिन यहाँ
नयना के इस वृत्तान्त को पढ़ते हुए गाँधी और प्रेमचंद याद आ गए। गाँधी का ‘हरिजनों’ के लिए मंदिर प्रवेश अभियान और प्रेमचंद का उसे समर्थन, प्रेमचंद तो खुद लगभग नास्तिक ही थे। फिर वे क्यों डॉ आम्बेडकर की तुलना में इस प्रसंग में खुद को गाँधी के अधिक करीब पाते हैं मनुष्य मात्र आर्थिक जीव नहीं है। आर्थिक व्यापार से अधिक अहम उसके लिए आध्यात्मिक शांति का प्रश्न है। तो उस वक्त चलें। गाँधी और फिर प्रेमचंद के पास।
30 अप्रैल, 1936 को सुबह 5 बजे गाँधीजी वर्धा के करीब के एक गाँव सेगाँव (सेवाग्राम) पहुँचे। लम्बे समय से वे गाँव में रहने के अपने इरादे को पूरा करने की जद्दोजहद में थे। जमनालाल बजाज के कारण ही वर्धा और फिर सेगाँव का चुनाव उन्होंने किया था। यहाँ वे 5-6 दिन रहे। वहाँ बसने के अपने निर्णय से अवगत कराने के लिए ही नहीं, बल्कि गाँववालों की इजाज़त लेने के लिए भी उन्होंने उन्हें बुलाया। डी. जी. तेंडुलकर ने आठ खंडों वाली गाँधी की जीवनी गाँव के लोगों से उन्होंने जो कहा उसे इस तरह लिखा है,
'बचपन से ही मेरा उसूल रहा है कि खुद को उनपर लाद देने के बारे में मुझे नहीं सोचना चाहिए जो उनके बीच मेरे जाने को अविश्वास, आशंका और भय की निगाह से देखते हैं।।...कई जगहों पर मेरी मौजूदगी और मेरे काम को ख़ासे ख़ौफ़ के साथ देखा जाता है। इस आतंक के पीछे यह तथ्य है कि अस्पृश्यता को समाप्त करने को मैंने अपने जीवन का मिशन बना लिया है। मीरा बेन से आपको मालूम ही हुआ होगा कि खुद मैंने हर प्रकार की अस्पृश्यता का त्याग कर दिया है, मेरे लिए ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र, राजपूत, महार, चमार सभी वर्गों के लोग एक हैं और जन्म पर आधारित इन भेदों को मैं अनैतिक मानता हूँ। हमने काफी नुकसान उठाया है इन भेदों के कारण और इस ऊँच नीच के भाव ने हमारे जीवन को विषैला बना दिया है।'
यह हिस्सा जितना महत्त्वपूर्ण है उससे अधिक वह जो आगे वे कहते हैं। उनका इरादा अपने विचारों को गाँववालों पर थोपने का नहीं है। वे खुद अपने जीवन के उदाहरण के माध्यम से या उन्हें समझा बुझाकर इस रास्ते लाना चाहेंगे, लेकिन अगर यह नहीं भी हुआ तो जो कुछ सौ लोग यहाँ रहते आए हैं उनके बीच वे घुलमिल जाना चाहेंगे।
गाँधी का यह वक्तव्य कतई क्रांतिकारी नहीं है। वे अस्पृश्यता के साथ रहने को तैयार दीखते हैं।
ऊँच-नीच, अशुद्ध, अपवित्र की धारणा की जड़ भारतीय समाज में बहुत गहरे धँसी है और जीवन के हर अंग को उसने ग्रस लिया है। यह जाति की विचारधारा का मूल है और अगर इसे हिलाया जा सका तो शायद जाति को भी समाप्त किया जा सकेगा।
गाँधी और प्रेमचंद
प्रेमचंद और उनकी तरह दूसरे लेखकों को अगर गाँधी ने प्रभावित किया तो सिर्फ अंग्रेजों से लड़ने के उनके तरीके की वजह से नहीं, बल्कि इसलिए कि वे अस्पृश्यता पर आघात करके भारतीय जीवन पद्धति को ही पूरी तरह बदल देना चाहते थे। लेकिन यह कैसे होगाफरवरी 1934 में प्रेमचंद ने एक बहुत छोटी टिप्पणी लिखी, ’जातिभेद मिटाने की एक योजना’। बंबई के मिस्टर बी. यादव ने जातिभेद मिटाने के लिए प्रस्ताव किया है कि सभी हिंदू उपजातियों को ब्राहमण कहा जाए और हिंदू शब्द उड़ा दिया जाए जिससे भेदभाव का बोध होता है। प्रेमचंद टिप्पणी करते हैं,
'प्रस्ताव बड़े मज़े का है। हम उस दिन को इतिहास में मुबारक समझेंगे जब हरिजन सभी ब्राह्मण कहलाएँगे ।..(चलने की दूर भविष्य में भी आशा नहीं)।...'इसके दो कारण हैं। एक तो भारतीय जाति व्यवस्था, दूसरे सरकार का रुख। वह भेदभाव मिटाने में मदद क्या करेगी, उसे तो 'उसे स्थायी रखने में कोई विशेष आनंद आता है।...जनगणना में तो हमारे बड़े बड़े सिविलियन समाजशास्त्र के पंडित जातियों में नई नई जाति खोज करके और लुकी छिपी जातियों का आविष्कार करके अपना नाम अमर कर लेते हैं। हिंदू खुद जाति-भेद का जितना भक्त है, सरकार उसी बात में उससे कोस भर आगे बढ़ी हुई है।'
'और हमारा तो कहना ही क्या, हम तो पहले कायस्थ या ब्राह्मण या वैश्य हैं, पीछे आदमी। किसी से मिलते ही हम पहला सवाल यही करते हैं कि आप कौन साहब हैं। ग्रामीणों में भी यही पूछा जाता है, कौन ठाकुर अगर वह अपनी सजाति हुआ तो उसके लिए चिलम भी है, तमाखू भी है, वरना उसमें हमें कोई दिलचस्पी नहीं रहती।..'
'...भेदभाव हमारे रक्त में सन गया है।...' प्रेमचंद जाति के मूल पर उँगली रखते हैं। जाति सबके लिए सुविधाजनक है और सबको एक शैतानी सुख देती है क्योंकि हर जाति, उपजाति की अपेक्षा कोई और जाति या उपजाति है जिससे वह खुद को ऊपर समझती है और जिसे अपने जीवन से वह काट सकती है। उसके पास कोई एक है जिसे वह अपने से नीचे मान सकती है और खुद को उससे श्रेष्ठ, जिसका उसके जीवन के कुछ प्रसंगों में प्रवेश निषिद्ध है। अपने दायरे में सीमित वर्चस्व का आनंद प्रत्येक को उपलब्ध है। फिर यह प्राकृतिक नियम जैसा ही हो जाता है। इसे ख़त्म करने में किसी की रुचि नहीं क्योंकि यह एक या दूसरे ढंग से लाभ का स्रोत है।
प्रेमचंद समाज सुधारक नहीं हैं। उनका क्षेत्र राजनीति भी नहीं है। लेकिन समाज और राजनीति, दोनों ही उनकी दिलचस्पी के पहले विषय हैं। उससे भी अधिक मनुष्य में उनकी रुचि है जो इन दोनों की प्राथमिक इकाई है, लेकिन जिसकी सत्ता को दोनों ही खा जाना चाहते हैं।
यह ख्याल भी उन्हें है कि समूह का बोध बदल रहा है। लोग अपनी सामुदायिकता की परिभाषा राजनीति की भाषा में कर रहे हैं। लेकिन राजनीतिक समुदायों के रूप में समाज का पुनर्गठन जटिल प्रक्रिया है। खुद को देखने और अपना आचरण तय करने के लिए जिस भाषा का अभ्यास सदियों से चला आता रहा है, उसे बदल देना सरल नहीं।
गाँधी का नज़रिया ही नहीं, उनकी पद्धति भी प्रेमचंद के स्वभाव के अनुकूल है। जाति को जाना होगा लेकिन कैसे जबतक ऊँच-नीच, भेदभाव का खयाल बना रहता है, जबतक वह किसी भी प्रकार के लाभ का कारण बना रहता है तबतक जाति बनी रहेगी।
फिर कौन सा रास्ता हो जिससे होकर मनुष्यता के समान धरातल पहुँचा जा सकता है। गाँधी धर्म का रास्ता, ईश्वर का पल्ला पकड़ते हैं। वह कितना अन्यायी ईश्वर होगा जो अपने ही सिरजे हुए प्राणियों में कुछ को ही अपने निकट स्थान दे और दूसरों को दुरदुराए तो वह ईश्वर नहीं, उसका विद्रूप है।
जवाहरलाल नेहरू की तर्कवादी उलझन को समझते हुए गाँधी ने उन्हें अपना तरीका बताया। वे कह रहे थे कि अस्पृश्यता जाति के विचार के मूल में है, लेकिन उसे नैतिक दृष्टि से उचित ठहराना किसी के लिए भी काफी कठिन है। वह जाति की शृंखला की सबसे कमजोर कड़ी है। उसके अलावा हिंदू धर्म के अगल-बगल समाज में जो दूसरे धर्म हैं उनमें कम से कम एक स्थान ऐसा है जहाँ यह भेदभाव नहीं किया जाता। सरोजिनी नायडू को समानता के इस दैनंदिन व्यावहारिक अभ्यास के कारण इसलाम में जनतांत्रिक बंधुत्व के दर्शन हुए थे।
प्रेमचंद को भी इसलाम इस कारण खींचता है। सैद्धांतिक तौर पर गिरिजाघर में यह बराबरी बरती जाती है। फिर मंदिरों में क्यों नहीं मंदिर क्यों नहीं सबके लिए खोले जा सकते
एक बार एक सतह पर ईश्वर की उपासना करने का अर्थ है एक सामूहिक अनुभव साथ-साथ उपलब्ध किया जा सकता है। फिर वह जीवन के शेष प्रसंगों में क्यों नहीं किया जा सकता
वह संभवतः पहला कदम होगा भेदभाव और ऊँच-नीच को जीवन के शेष इलाकों में गैरवाजिब ठहराने के रास्ते में। समानता और प्रेम की राह इतनी आसान नहीं।
अभियान का दायरा
यह बिना एक अभियान के नहीं हो सकता था। लेकिन क्या यह सिर्फ दलितों और ‘अवर्ण’ जातियों के बीच आन्दोलन करके होगा इसके लिए अधिक ज़रूरी होगा सनातनियों और सवर्णों के बीच आंदोलन। बल्कि शायद पहले उन्हीं के बीच अभियान।अंग्रेजों के ख़िलाफ़ आन्दोलन के बीच गाँधी एक लम्बे समय तक खुद को इस ‘राजनीतिक’ आंदोलन से लगभग अलग करके जाति और उसमें भी ‘मंदिर प्रवेश’ को अपना विषय बना लेते हैं।
गाँधी पर आरोप यह है कि वे वास्तव में संख्यात्मक दृष्टि से हिंदू दायरा बड़ा करने की चतुराई कर रहे थे। वे जब दलित-हिंदू पार्थक्य को मानने को तैयार न थे तो इसका कारण उनका अधिक यथार्थवादी होना था।
वे अपने इच्छित यथार्थ को वास्तविक यथार्थ पर आरोपित नहीं कर सकते।
नयना के ओडिशा के एक गाँव के बच्चों से बातचीत और उनके दुख के पहले कारण का ब्योरा साबित करता है कि गाँधी समाज के कहीं अधिक निकट थे। ‘हरिजनों के मंदिर-प्रवेश का प्रश्न’ नामक निबंध में प्रेमचंद समझाते हुए लिखते हैं,
'भारत धर्मप्रधान राष्ट्र है और आज भी धर्म हमारे जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण भाग है।।।जनता अभी तक धर्म को और अपने देवताओं को अपने प्राणों से चिपकाए हुए है।'
समाज का धार्मिक और आध्यात्मिक अनुभव कहीं पेचीदा है,
'उत्तर भारत में कुछ देवता ऐसे भी हैं, जिसके पुरोहित हमारे हरिजन भाई ही हैं। जिस गाँव में चले जाइए, चमारों या भरों के पुरवे में आपको किसी नीम के वृक्ष के नीचे दस बीस मिट्टी के बड़े-बड़े हाथी, लाल रंगे हुए एक जगह रखे हुए मिलेंगे। वहीं एक त्रिशूल भी गड़ा होगा। एक लाल पताका भी पेड़ से बंधी होगी। यह देवी का स्थान है, इस चबूतरे का पुजारी कोई चमार, पासी या भर होगा। वर्णवाले हिंदू स्त्री बड़ी श्रद्धा से देवी के चबूतरे पर जाते हाँ, वहाँ बतासे, धूप-दीप, फूल-माला चढ़ाते हैं। जब वर्णवाले हिन्दुओं को हरिजनों के इन देवताओं की उपासना करने और हरिजनों को अपना पुरोहित बनाने में शर्म नहीं आती-घृणा का भाव तो वहाँ आ ही नहीं सकता-तो हम नहीं समझते कि हरिजनों के हिन्दू मंदिरों में आ जाने से कौन सा अनर्थ हो जाएगा।'
जैसा हमने पहले निवेदन किया, यह बहस का मुद्दा था। कई लोगों का और उनमें अग्रणी बाबा साहब थे, यह मानना था, जैसा प्रेमचंद ने लिखा,
'मंदिर-प्रवेश की उतनी ज़रूरत नहीं है, जितनी इस बात की कि साधारण हिन्दू उनसे सज्जनता का व्यवहार करें, और उन्हें अपने बराबर समझें..।'
प्रेमचंद इस इच्छा को नहीं समझते ऐसा नहीं, लेकिन वे पूछते हैं,
' ..इसका प्रमाण क्या होगा कि हिन्दू किसी अछूत से सज्जनता का व्यवहार कर रहा है। खाने पीने की सम्मिलित प्रथा अभी हिन्दुओं में ही नहीं है, अछूतों के साथ कैसे हो सकती है। शहरों में दो-चार सौ दामियों के अछूतों के साथ भोजन कर लेने से यह समस्या हल नहीं हो सकती। शादी-ब्याह इससे भी कठिन प्रश्न है।'
सामाजिक परतों को तोड़ने की तैयारी
समस्या व्यावहारिक है, समाज की कड़ी पड़ गई परतों को तोड़ने की। क्या वह एकबारगी हो सकता है बिना भावनात्मक या वैचारिक तैयारी के
'जब एक ही जाति की भिन्न-भिन्न शाखाओं में परस्पर शादी नहीं होती, तो अछूतों के साथ यह संबंध कैसे हो सकता है। ये दोनों प्रश्न अभी बहुत दिनों में हल होंगे, अर्थात् –उस समय जब हिन्दू-जाति भेद-भाव को मिटा देगी।'
जाति भारत की सबसे धर्मनिरपेक्ष इकाई है। इसका स्रोत अवश्य हिंदू धर्म और उसका शास्त्र विधान होगा, लेकिन इसने उन तमाम धर्मों को अपने वश में कर लिया जो हिंदू धर्म से भिन्न थे। ईसाइयत हो या इसलाम या सबसे नया धर्म सिख, जाति इन सबसे ऊपर है और इन सबमें है। इसने हर धर्म के अनुयायियों के जीवन को प्रभावित किया है,
'इस तरह की कैदें ईसाइयों और मुसलमानों में भी हैं। खानदानी मुसलमान कभी अपनी लड़की का विवाह किसी नीचे [के] मुसलमान – धुने, जुलाहे, मेहतर - से करना पसंद न करेगा, चाहे वह कितना शिक्षित और धनी क्यों न हो। ईसाइयों में भी इस तरह की पाबंदियाँ हैं।'
जैसा प्रेमचंद बार बार कह चुके हैं, हम उन आध्यात्मिक स्रोतों का लाभ उठाएँ जो हमारे व्यापक समाज में मौजूद हैं,
'हाँ, इन दोनों मतों, चाहे किसी श्रेणी या पेशे के हों, बिना किसी रोक-टोक के मसजिदों और गिरिजाघरों में जा सकते हैं। भाईचारे या बराबरी का यही एक व्यवहार है, जो अन्य धर्मों में प्रचलित है और इसी एक व्यवहार के हिन्दू-धर्म में न होने से इस धर्म के माथे पर इतना बड़ा कलंक लगा हुआ है।'
तो मंदिर प्रवेश का आन्दोलन हिन्दू धर्म के माथे से कलंक का टीका मिटाने का आन्दोलन है। वह ‘अस्पृश्य’को ऊँचा उठाने का जितना नहीं उतना हिन्दू धर्म को उस क्षुद्रता की दलदल से निकालने का प्रयास है जिसमें वह धँसता ही जा रहा है और दूसरे धर्मों के सामने सर उठाकर नहीं खड़ा हो सकता।
प्रेमचंद की कहानी, ‘सिर्फ़ एक आवाज़’ को न भूलें जिसमें मेले में संन्यासी की पुकार कि वर्णवाले ‘अवर्णों’ को गले लगाएँ, शिक्षितों की दीवार से टकरा कर लौट जाती है। हिंदू धर्म को ऊँचा उठाने की जो महत्त्वाकांक्षा गाँधी की थी वह तो व्यर्थ ही हो गई लगती है अगर हम नयना की निराशा को समझने की कोशिश करें और उन बच्चों की शिकायत फिर सुनें,
'वे पूजा में सरस्वती की प्रतिमा पर फूल भी नहीं चढ़ाने देते।'