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अदालतों को देख याद आता है प्रेमचंद का 'पंच परमेश्वर'

अदालतों को देख याद आता है प्रेमचंद का 'पंच परमेश्वर'

पिछले दिनों प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर की याद बार-बार दिलाई गई है। भारत की अदालतों में जो कुछ भी हो रहा है, उसके संदर्भ में। ख़ासकर प्रशांत भूषण पर अदालत की हतक के मुकदमे के सिलसिले में। प्रेमचंद जयंती पर सत्य हिन्दी की विशेष पेशकश अपूर्वानंद की कलम से।

पिछले दिनों प्रेमचंद की कहानी पंच परमेश्वर की याद बार-बार दिलाई गई है। भारत की अदालतों में जो कुछ भी हो रहा है, उसके संदर्भ में। ख़ासकर प्रशांत भूषण पर अदालत की हतक के मुकदमे के सिलसिले में। ’क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?’ अलगू चौधरी को खाला का दिया यह उलाहना उद्धृत किया जा रहा है। यह उलाहने से ज्यादा चुनौती है। हिंदी के कुछ वाक्यों को ही अमरता का वह गौरव प्राप्त है जो इस वाक्य ने हासिल कर लिया है।

नैतिकता की साधना

नैतिक दुविधा और असमंजस पर इतने सादा अंदाज में चोट करने के लिए प्रेमचंद की तरह भाषा का सधाव चाहिए। लेकिन वह सिर्फ भाषा का नहीं, नैतिकता की भी साधना है जो इंसाफ को किसी भी प्रकार किसी भी तरह के स्वार्थ से मुक्त करती है। 

गांधी अपने लोगों की हिंसा पर चुप नहीं रहते। नेहरू जैसे तीक्ष्ण नैतिक बोधयुक्त व्यक्ति को भी गांधी की प्रतिक्रिया अतिरंजित मालूम पड़ती है, यह इतनी ही कठिन साधना है। इसके लिए जो नैतिक स्पष्टता चाहिए, वह सबमें नहीं पाई जाती। गांधी एक बड़ा बिगाड़ मोल ले रहे थे. यह सिर्फ चौरी चौरा के मामले में ही नहीं, क्रांतिकारी हिंसा के किसी भी प्रकार के बचाव से इनकार करने के लिए भी नैतिक साहस चाहिए था। जनता का लोकप्रिय मत, जो अन्याय के विरुद्ध हिंसा को जायज़ मानता है, गांधी से हर बार सहमत हो, संभव नहीं था। 

यह भी कह सकते हैं कि प्रेमचंद की खाला के इस सवाल को गांधी ने सबसे पहले हल किया। उस वजह से उनकी राजनीति में प्रामाणिकता आ पाई। भारत लौटने के बाद अहमदाबाद में आश्रम स्थापित करने के बाद जब उन्होंने ‘अस्पृश्य’ माने जानेवाले दूधा भाई के परिवार को आश्रम की सदस्यता दी तो सबसे पहले अपने परिवार और आश्रमजन से बिगाड़ का ख़तरा था। और आश्रम के समर्थकों से भी बिगाड़ होना था। आश्रम को मिलनेवाला आर्थिक सहयोग बंद हो गया। फिर भी गांधी ईमान की बात पर टिके रहे, इस प्रसंग में वह थी मनुष्य की बराबरी, अस्पृश्यता के सिद्धांत को नामंजूर करना। 

गांधी ने आख़िरी दिनों में फिर अपनों से बिगाड़ का ख़तरा उठाकर ईमान की बात कही। भले ही पाकिस्तान बन गया और वहाँ की हिंसा में सिख और हिंदू मारे गए, भारत में मुसलमानों पर हाथ नहीं उठाया जा सकता। दूसरी ईमान की बात थी, दूसरे मतभेद और संघर्ष हों, लेकिन पाकिस्तान का पावना, जो तय था, 55 करोड़ रुपया, वह रोका नहीं जा सकता। अपने लोगों से बिगाड़ करके ईमान की बात पर टिकने की कीमत गांधी ने अपनी जान देकर चुकाई।

‘ईमान की बात’ के चलते बिगाड़ का ख़तरा रवींद्रनाथ टैगोर ने भी मोल लिया जब उन्होंने भारत के और अपने प्रिय महात्मा से विदेशी वस्त्र और वस्तुओं और स्कूल-कॉलेज के बहिष्कार के मामले में अपनी असहमति सार्वजनिक रूप से जाहिर की। उसके पहले भी इसके उदाहरण मौजूद हैं। वह चाहे ईश्वरचंद्र विद्यासागर हों या राममोहन रॉय या पंडिता रमाबाई, उन्होंने अपनों से बिगाड़ का जोखिम लिया।

खाला जब अलगू चौधरी को उलाहना दे रही हैं, तो उनके भीतर अपने दोस्त से बिगाड़ के डर पर उँगली रख रही हैं। वही तो सबसे बड़ा डर है। वामपंथी बुद्धिजीवी जब माओवादी हिंसा या नंदीग्राम, सिंगूर में सीपीएम की हिंसा के ख़िलाफ़ न बोल पाए तो इसी वजह से। वे अपनों से बिगाड़ नहीं कर सकते थे। भारत में हिंदुओं को अपनों से बिगाड़ करना होगा, श्रीलंका में बौद्धों को अपनों से, पाकिस्तान में मुसलमानों को अपनों से, इस्राइल के यहूदियों को अपनों से। ईमान की बात का राज तभी कायम हो पाएगा। 

मित्रता का मूलमंत्र 

‘पंच परमेश्वर’ कहानी लेकिन सिर्फ इस वाक्य से शुरू होकर इसी पर ख़त्म न हो जानी चाहिए। इस कहानी में प्रेमचंद की दूसरी कहानियों की तरह ही अनेक स्तर हैं। कहानी इस तरह शुरू होती है:

जुम्मन शेख अलगू चौधरी में गाढ़ी मित्रता थी। साझे में खेती होती थी। कुछ लेन-देन में भी साझा था। एक को दूसरे पर अटल विश्वास था। जुम्मन जब हज करने गये थे, तब अपना घर अलगू को सौंप गये थे, और अलगू जब कभी बाहर जाते, तो जुम्मन पर अपना घर छोड़ देते थे। उनमें न खान-पान का व्यवहार था, न धर्म का नाता; केवल विचार मिलते थे। मित्रता का मूलमंत्र भी यही है।’

एक हिंदू, दूसरा मुसलमान और एक साझा ज़िंदगी। खान-पान का व्यवहार नहीं है, फिर भी मित्रता इसलिए है कि एक दूसरे के विचार मिलते हैं। और प्रेमचंद की सूक्ति है: मित्रता का मूल मंत्र यही है: विचारों का मिलना। अगर विचारों का मेल नहीं हो तो मित्रता सारहीन है। यह आपसी भरोसा आज सपना लगता है, लेकिन यह प्रेमचंद की दूसरी कहानियों में भी दिखलाई पड़ता है। इस गंभीर स्वर के बाद प्रेमचंद की आँखों से विनोद छलक पड़ता है:

‘इस मित्रता का जन्म उसी समय हुआ, जब दोनों मित्र बालक ही थे, और जुम्मन के पूज्य पिता, जुमराती, उन्हें शिक्षा प्रदान करते थे। अलगू ने गुरू जी की बहुत सेवा की थी, खूब प्याले धोये। उनका हुक्का एक क्षण के लिए भी विश्राम न लेने पाता था, क्योंकि प्रत्येक चिलम अलगू को आध घंटे तक किताबों से अलग कर देती थी। अलगू के पिता पुराने विचारों के मनुष्य थे। उन्हें शिक्षा की अपेक्षा गुरु की सेवा-शुश्रूषा पर अधिक विश्वास था। वह कहते थे कि विद्या पढ़ने से नहीं आती; जो कुछ होता है, गुरु के आशीर्वाद से। बस, गुरु जी की कृपा-दृष्टि चाहिए। अतएव यदि अलगू पर जुमराती शेख के आशीर्वाद अथवा सत्संग का कुछ फल न हुआ, तो यह मानकर संतोष कर लेना कि विद्योपार्जन में मैंने यथाशक्ति कोई बात उठा नहीं रखी, विद्या उसके भाग्य ही में न थी, तो कैसे आती? मगर जुमराती शेख स्वयं आशीर्वाद के कायल न थे। उन्हें अपने सोंटे पर अधिक भरोसा था, और उसी सोंटे के प्रताप से आस-पास के गाँवों में जुम्मन की पूजा होती थी। उनके लिखे हुए रेहननामे या बैनामे पर कचहरी का मुहर्रिर भी कदम न उठा सकता था। हल्के का डाकिया, कांस्टेबिल और तहसील का चपरासी - सब उनकी कृपा की आकांक्षा रखते थे। अतएव अलगू का मान उनके धन के कारण था, तो जुम्मन शेख अपनी अनमोल विद्या से ही सबके आदरपात्र बने थे।’

अगर आप हिंदी के अध्यापकों की तरह इसे व्याख्या योग्य अंश न मानकर आगे बढ़ जाती हैं तो आप कहानी नहीं पढ़ रही हैं और कहानी की पाठक भी नहीं हैं। आखिर इस विनोदपूर्ण वर्णन में सूक्ष्म सामाजिक आलोचना है: शिक्षा की, कानून की, सामाजिक रिश्तों की।

कहानी के इस अंश से आपके मन में अगर जुम्मन शेख के प्रति सद्भाव पैदा हो गया हो तो अगला हिस्सा उस भाव को भंग करता है। इसमें आपकी मुलाक़ात जुम्मन शेख की खाला से होती है। सिर्फ उनसे नहीं, उनके और जुम्मन और उनकी बीवी के बीच के रिश्ते से और कहानी यहाँ एक मोड़ ले लेती है:

जुम्मन शेख की एक बूढ़ी खाला (मौसी) थी। उसके पास कुछ थोड़ी-सी मिलकियत थी; परन्तु उसके निकट संबंधियों में कोई न था। जुम्मन ने लम्बे-चौड़े वादे करके वह मिलकियत अपने नाम लिखवा ली थी। जब तक दानपत्र की रजिस्ट्री न हुई थी, तब तक खालाजान का खूब आदर-सत्कार किया गया; उन्हें खूब स्वादिष्ट पदार्थ खिलाये गये। हलवे-पुलाव की वर्षा- सी की गयी; पर रजिस्ट्री की मोहर ने इन खातिरदारियों पर भी मानो मुहर लगा दी। जुम्मन की पत्नी करीमन रोटियों के साथ कड़वी बातों के कुछ तेज, तीखे सालन भी देने लगी। जुम्मन शेख भी निठुर हो गये। अब बेचारी खालाजान को प्राय: नित्य ही ऐसी बातें सुननी पड़ती थी। बुढ़िया न जाने कब तक जियेगी। दो-तीन बीघे ऊसर क्या दे दिया, मानो मोल ले लिया है! बघारी दाल के बिना रोटियाँ नहीं उतरतीं! जितना रुपया इसके पेट में झोंक चुके, उतने से तो अब तक गाँव मोल ले लेते। कुछ दिन खालाजान ने सुना और सहा; पर जब न सहा गया तब जुम्मन से शिकायत की। जुम्मन ने स्थानीय कर्मचारी-गृहस्वांमी-के प्रबंध में दखल देना उचित न समझा।’

इन्साफ की उम्मीद

प्रेमचंद के पाठकों को यह अंश पढ़कर ‘बूढ़ी काकी’ की याद आना स्वाभाविक है और ‘बेटों वाली विधवा’ की भी। संपत्ति और मानवीय सदाशयता में सदा का बैर है। यह प्रेमचंद के जीवन का भी सिद्धांत था। यह भारतीय घर और संयुक्त परिवार के रूमानी भरम को भी तोड़ती है। जुम्मन शेख अच्छे मित्र हो सकते हैं। लेकिन क्या वे ईमानदार भी हैं? खाला को लेकर उनकी नीयत में खोट है। गाँव में अपने रुतबे की वजह से भी उन्हें यकीन है कि कोई खाला की न सुनेगा:

‘कुछ दिन तक और यों ही रो-धोकर काम चलता रहा। अन्त में एक दिन खाला ने जुम्मन से कहा- बेटा ! तुम्हारे साथ मेरा निर्वाह न होगा। तुम मुझे रुपये दे दिया करो, मैं अपना पका-खा लूँगी। 
जुम्मन ने धृष्टता के साथ उत्तर दिया -— रुपये क्या यहाँ फलते हैं? 
खाला ने नम्रता से कहा - मुझे कुछ रूखा-सूखा चाहिए भी कि नहीं? 
जुम्मन ने गम्भीर स्वर से जवाब़ दिया - तो कोई यह थोड़े ही समझा था कि तुम मौत से लड़कर आयी हो? 
खाला बिगड़ गयीं, उन्होंने पंचायत करने की धमकी दी। जुम्मन हँसे, जिस तरह कोई शिकारी हिरन को जाल की तरफ जाते देख कर मन ही मन हँसता है। 
वह बोले - हाँ, ज़रूर पंचायत करो। फ़ैसला हो जाय। मुझे भी यह रात-दिन की खटखट पसंद नहीं। 
पंचायत में किसकी जीत होगी, इस विषय में जुम्मन को कुछ भी संदेह न थ। आस-पास के गाँवों में ऐसा कौन था, जो  उसके अनुग्रहों का ऋणी न हो; ऐसा कौन था, जो उसको शत्रु बनाने का साहस कर सके? किसमें इतना बल था, जो उसका सामना कर सके? आसमान के फरिश्ते तो पंचायत करने आवेंगे ही नहीं।”

अब खाला पंचायत के लिए लोगों को जुटाने में। उसका ब्योरा भी नोट करने की ज़रूरत है क्योंकि 

'ऐसे न्यायप्रिय, दयालु, दीन-वत्सल पुरुष बहुत कम थे, जिन्होंने इस अबला के दुखड़े को गौर से सुना हो और उसको सांत्वना दी हो।' 

प्रेमचंद सचमुच भारत के देहात की नस-नस पहचानते हैं। वे आदर्श नहीं हैं। ग्रामवासी गुणों की खान नहीं।हर तरफ से निराश होकर खाला अलगू चौधरी के पास पहुँचती हैं। लेखक यहाँ एक संकट पैदा करता है। खाला को अलगू और जुम्मन की दाँत काटी दोस्ती का खूब पता है, फिर भी वे अलगू के पास इन्साफ की उम्मीद लेकर पहुँचती हैं। अलगू का जवाब वैसा ही है जैसा एक सामान्य व्यक्ति का  होना चाहिए :

चारों ओर से घूम-घाम कर बेचारी अलगू चौधरी के पास आयी। लाठी पटक दी और दम लेकर बोली - बेटा, तुम भी दम भर के लिये मेरी पंचायत में चले आना।

अलगू - मुझे बुला कर क्या करोगी? कई गाँव के आदमी तो आवेंगे ही।

 

खाला - अपनी विपद तो सबके आगे रो आयी। अब आने न आने का अख्तियार उनको है।

अलगू - यों आने को आ जाऊँगा; मगर पंचायत में मुँह न खोलूँगा। 

खाला - क्यों बेटा? 

अलगू - अब इसका क्या जवाब दूँ? अपनी खुशी। जुम्मन मेरा पुराना मित्र है। उससे बिगाड़ नहीं कर सकता।

खाला उम्मीद नहीं छोड़तीं, 

‘खाला- बेटा, क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?

हमारे सोये हुए धर्म-ज्ञान की सारी सम्पत्ति लुट जाय, तो उसे ख़बर नहीं होता, परन्तु ललकार सुनकर वह सचेत हो जाता है। फिर उसे कोई जीत नहीं सकता। अलगू इस सवाल का कोई उत्तर न दे सका, पर उसके हृदय में ये शब्द गूँज रहे थे- क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न कहोगे?’

नैतिक संकट

खाला उसे जानबूझ कर नैतिक संकट में डाल रही हैं। भीतर सोई पड़ी नैतिकता, जिसे प्रेमचंद ‘धर्म ज्ञान’ कहते हैं, जाग उठती है। चाहे तो कह सकते हैं कि इस अंश में प्रेमचंद किस्से की मूल प्रेरणा यानी कौतूहल की हत्या कर देते हैं क्योंकि आप अनुमान कर सकते हैं कि क्या होगा। लेकिन कहानी ‘आगे क्या’ या ‘और क्या’ का उत्तर भर नहीं है। वह उसके अलावा और उससे ज्यादा भी है।

पंचायत के सजने का वर्णन पढ़िए :

संध्या समय एक पेड़ के नीचे पंचायत बैठी। शेख जुम्मन ने पहले से ही फर्श बिछा रखा था। उन्होंने पान, इलायची, हुक्के-तम्बाकू आदि का प्रबन्ध भी किया था। हाँ, वह स्वयं अलबत्ता अलगू चौधरी के साथ जरा दूर पर बैठे जब पंचायत में कोई आ जाता था, तब दबे हुए सलाम से उसका स्वागत करते थे। जब सूर्य अस्त हो गया और चिड़ियों की कलरवयुक्त पंचायत पेड़ों पर बैठी, तब यहाँ भी पंचायत शुरू हुई। फर्श की एक-एक अंगुल जमीन भर गयी; पर अधिकांश दर्शक ही थे। निमंत्रित महाशयों में से केवल वे ही लोग पधारे थे, जिन्हें जुम्मन से अपनी कुछ कसर निकालनी थी। एक कोने में आग सुलग रही थी। नाई ताबड़तोड़ चिलम भर रहा था। यह निर्णय करना असम्भव था कि सुलगते हुए उपलों से अधिक धुऑं निकलता था या चिलम के दमों से। लड़के इधर-उधर दौड़ रहे थे। कोई आपस में गाली-गलौज करते और कोई रोते थे। चारों तरफ कोलाहल मच रहा था। गाँव के कुत्ते इस जमाव को भोज समझकर झुंड के झुंड जमा हो गए थे।’

बात तक पहुँच जाने की जल्दी नहीं। पंच कौन हो? खाला में मर्यादा का पारंपरिक विचार धूमिल नहीं हुआ है। पंचायत में अधिकतर वे हैं जो जुम्मन के प्रताप से जलते हैं। इनमें से वे किसे पंच चुनें। खाला उनकी दुविधा खत्म कर देती हैं, 

‘बोली -- बेटा, खुदा से डरो। पंच न किसी के दोस्त होते हैं, न किसी के दुश्मन। कैसी बात कहते हो! और तुम्हारा किसी पर विश्वास न हो, तो जाने दो; अलगू चौधरी को तो मानते हो, लो, मैं उन्हीं को सरपंच बदती हूँ।

अलगू के संकोच को मानो खाला हथौड़े से तोड़ डालती हैं,

खाला ने गम्भीर स्वर में कहा -- 

बेटा, दोस्ती के लिए कोई अपना ईमान नहीं बेचता। पंच के दिल में खुदा बसता है। पंचों के मुँह से जो बात निकलती है, वह खुदा की तरफ से निकलती है।’

इस वाक्य की शायद ज़रूरत न थी। आरंभ में ही खाला की ललकार सुनकर उनके भीतर धर्म ज्ञान के सजग होने की ख़बर मिल चुकी है। वह ललकार : ‘क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात न करोगे?’ उनके मन में गूँज रही है। इसलिए इस पंचायत का फ़ैसला पहले ही लिखा जा चुका है। अलगू चौधरी खाला के पक्ष में निर्णय सुनाते हैं। दोनों दोस्तों की बेतकल्लुफी जाती रही। राह-रस्म बनी हुई है लेकिन गर्माहट खत्म हो गई:

इतना पुराना मित्रता-रूपी वृक्ष सत्य का एक झोंका भी न सह सका। सचमुच वह बालू की ही ज़मीन पर खड़ा था।

जुम्मन शेख के मन में गाँठ पड़ गई। जो औरों के लिए इन्साफ है, उनके लिए दगाबाजी है। कहानी अपने उत्तरार्ध में जुम्मन शेख को उसी संकट में डालती है जिसमें पहले अलगू पड़ चुके हैं। उनके बैलों की जोड़ी में एक मर जाता है। संदेह जुम्मन पर जाता है। यह सोचने का तरीका है:

‘चौधराइन और करीमन में इस विषय पर एक दिन खूब ही वाद-विवाद हुआ। दोनों देवियों ने शब्द-बाहुल्य की नदी बहा दी। व्यंग्योक्ति, अन्योक्ति और उपमा आदि अलंकारों में बातें हुईं। जुम्मन ने किसी तरह शांति स्थापित की। उन्होंने अपनी पत्नी को डाँट-डपट कर समझा दिया। वह उसे उस रणभूमि से हटा भी ले गये। उधर अलगू चौधरी ने समझाने-बुझाने का काम अपने तर्क-पूर्ण सोंटे से लिया।’

अकेले बैल का क्या हो? गाँव के साहूकार के साथ सौदा तय हुआ। पैसा महीने भर में चुकाने की ठहरी। लेकिन उन्होंने उस बीच उस बैल को रगेद मारा। बैल के साथ उनके बर्ताव को पढ़कर ‘दो बैलों की कथा’ की याद आ जाती है। उस पूरे अंश को भी ठहर ठहर कर पढ़ने की ज़रूरत है। आप कहानी एक बार पढ़ें इसलिए उस अंश को उद्धृत करने के लोभ का संवरण करके आगे बढ़ता हूँ।

उत्तरदायित्व का ज्ञान

साहू की व्यावसायिक क्रूरता बैल की जान ले लेती है। एक ही गाँव में किसान और बैल और साहूकार और बैल के रिश्ते में कितना अंतर है! एक मानवीय है, दूसरा पूरी तरह उपयोगितावादी। अलगू को बैल की कीमत देने में साहु जी हीला-हवाला करने लगे। आखिर पंचायत की ठहरी। और अब तक पाठक इतना तो समझ ही गया है कि इस बार साहु जी जुम्मन को पंच चुनेंगे: 

‘रामधन मिश्र ने कहा - अब देरी क्या है ? पंचों का चुनाव हो जाना चाहिए। बोलो चौधरी किस-किस को पंच बदते हो। 

अलगू ने दीन भाव से कहा -- समझू साहु ही चुन लें। 

समझू खड़े हुए और कड़कर बोले -- मेरी ओर से जुम्मन शेख। 

जुम्मन का नाम सुनते ही अलगू चौधरी का कलेजा धक्-धक् करने लगा मानो किसी ने अचानक थप्पड़ मार दिया हो। रामधन अलगू के मित्र थे। वह बात को ताड़ गए। पूछा -- क्यों चौधरी तुम्हें कोई उज्र तो नहीं ?

चौधरी ने निराश हो कर कहा -- नहीं, मुझे क्या उज्र होगा?’

अंत प्रत्याशित है। और यह कुशल कहानीकार ही कर सकता है कि अंत का रहस्य न रहने देकर भी कहानी में उत्सुकता बनाए रखे। आप इन शब्दों, सूक्तियों के लिए भी इसे पढ़ेंगे :

‘अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित व्यवहारों का सुधारक होता है। जब हम राह भूल कर भटकने लगते हैं तब यही ज्ञान हमारा विश्वसनीय पथ-प्रदर्शक बन जाता है।’

जुम्मन की आत्मा भी जाग उठती है :

जुम्मन शेख के मन में भी सरपंच का उच्च स्थान ग्रहण करते ही अपनी ज़िम्मेदारी का भाव पैदा हुआ। उसने सोचा, मैं इस वक्त न्याय और धर्म के सर्वोच्च आसन पर बैठा हूँ। मेरे मुँह से इस समय जो कुछ निकलेगा, वह देववाणी के सदृश है-और देववाणी में मेरे मनोविकारों का कदापि समावेश न होना चाहिए। मुझे सत्य से जौ भर भी टलना उचित नही!’

निर्णय अलगू के पक्ष में होता है। जैसा कहा, अंत धमाकेदार नहीं, चौकानेवाला नहीं, नाटकीय नहीं। लेकिन प्रेमचंद का इरादा भी यह नहीं है। कहानी उनकी दूसरी अनेक कहानियों की तरह आशा के नोट पर खत्म होती है।

कहानी गाँव के बारे में है, उसके रिश्तों के बारे में, उसकी ज़िंदगी में दिलचस्पी लेते हुए कही जाती है। वह न्यायबोध के बारे में है, मित्रता के विषय में भी और जैसा पहले कई बार कहा जा चुका है हर इंसान में बसे दैवी अंश के बारे में भी। 

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