प्रेमचंद- 140, चौथी कड़ी : प्रेमचंद की ईद
हँसें कि न हँसें, इस पर ख़ासी बहस रही है। एक पूरा का पूरा इलाक़ा ही साहित्य और कला में हँसी पैदा करने के कारोबार के नाम पर खड़ा हो गया है। हँसी का उद्योग! हँसी एक अलग सी चीज़ हो गई है इस रसहीन जीवन में। जीवन एकरस या उबाऊ है, इसीलिए हास्य का घोल बनाकर पिलाना पड़ता है या उसका इंजेक्शन देना पड़ता है।
हास्य अलग रस है भारतीय साहित्य शास्त्र में। हास्य-साहित्य की भी पूरी परंपरा है। लेकिन यह जो हास्य का अलग से संगठन किया जाता है या पूरा एक उद्योग ही इसके नाम पर चलता है, इसकी सख़्ती से पड़ताल दार्शनिकों ने की है। यह आम तौर पर कहा जाता है कि हास्य लोगों को क़रीब लाता है और वह हमें आज़ाद भी करता है। हँसते रहिए या हमेशा मुस्कुराइए, इस सकारात्मक लगते नज़रिए में धोखा है। थियोडोर अडोर्नो इसकी तरह से सावधान करते हैं। इस प्रकार आयोजित की गई हँसी हमें साझा इंसानियत का हिस्सा बनने में मदद नहीं करती। लेकिन एक और क़िस्म की हँसी है जिसके ज़रिए अपने आप से अपरिचित यह कुदरत ख़ुद को पहचानना सीखती है। इंसान पर भी अपने आप पर, उसके अपने अपने स्वभाव पर इस तरह की हँसी से एक अलग क़िस्म की रौशनी पड़ती है, वह नई निगाह से ख़ुद को देखता है।
हँसी की जाँच बहुत मुश्किल नहीं। कौन-हँसी है जिसमें सब शामिल हो सकते हैं वह किस क़िस्म की हँसी है जो किसी एक को भी अकेला करती है और साझेपन की भावना को कम करती है हँसी का मुक़ाम इससे तय होगा कि क्या वह कमज़ोर को और कमज़ोर और ताक़तवर को और ताक़तवर बनाती है या वह इस नाइंसाफ़ी भरे रिश्ते को पलटती है। क्या वह मुझे इस ज़िंदगी के ढर्रे में ढाल देने की किसी को हिकमत है या इसके बेमानीपन को उजागर करने का औज़ार है
चैपलिन, अडोर्नो और हँसी की व्याख्या
हँसी या हास्य का ज़िक्र आए और चार्ली चैपलिन को याद न किया जाए, मुमकिन नहीं। दार्शनिक थिओडोर अडोर्नो उनसे एक मुलाक़ात का वाक़या सुनाते हैं। एक दावत में वे साथ थे। वहाँ बेख़याली में और आदतन अडोर्नो हाथ बढ़ा देते हैं अभिनेता हैरोल्ड रसेल की तरह। रसेल जंग में अपना दाहिना हाथ गँवा चुके हैं। उनका पंजा नक़ली है। हाथ मिलाते वक़्त अडोर्नो चौंक जाते हैं कि उस नक़ली पंजे ने भी उनके हाथ के दबाव का जवाब दिया, यानी एक जवाबी हरकत उन्होंने महसूस की। लेकिन अपनी इस हैरानी को छिपाने के लिए उन्होंने मुस्कुराने की कोशिश की। वह सच्ची मुस्कुराहट न थी, उसका विद्रूप था। चार्ली चैपलिन यह देख रहे थे। रसेल के जाने के बाद उन्होंने इस पूरी घटना की नक़ल करना शुरू किया। अडोर्नो ने बताया कि इससे जो हँसी पैदा हुई वह ख़ौफ़ के काफ़ी क़रीब थी। अडोर्नो क्या इसकी अतिव्याख्या कर रहे हैं जर्नो हाएतालहती इसका विश्लेषण करते हुए लिखते हैं कि मुमकिन है चैपलिन सिर्फ़ इस पूरे दृश्य के अटपटेपन को उजागर कर रहे हों। लेकिन यह भी कहा जा सकता है कि अडोर्नो की प्रतिक्रिया की नक़ल उतारकर वे किसी और बड़ी चीज़ की ओर इशारा कर रहे हों
शारीरिक रूप से ख़ुद को सम्पूर्ण और सक्षम माननेवाला जब किसी ऐसे व्यक्ति से मिले जिसमें उसे कोई कमी दीखे तो वह यह नहीं दिखलाना चाहता कि उनमें कोई ग़ैरबराबरी है। इसलिए कई बार वह बड़प्पन दिखलाते हुए इस कमी की भरपाई करने में अति कर बैठता है। ऐसा करते हुए वह कितना बेवक़ूफ़ दीख सकता है! यह जो जबरन लाई गई या झेंपी हुई मुस्कान है, वह कहीं हमारे भीतर पैवस्त पूर्वग्रहों को छिपाने का पर्दा तो नहीं है जब चैपलिन यह कर रहे थे तो वह शायद अडोर्नो का मज़ाक़ नहीं उड़ा रहे थे, वे इस सामाजिक शिक्षा पर उँगली रख रहे थे जो इस प्रकार के शिष्टाचार को जन्म देती है।
प्रेमचंद के हामिद की हास्यपूर्ण युक्तियाँ
हँसी इस तरह आलोचना है। वह ताक़त के दावे को ख़ारिज करने का तरीक़ा है। ‘ईदगाह’ की याद इस प्रसंग में सहज ही आती है। प्रेमचंद का प्यारा हामिद हास्यपूर्ण युक्तियों का सहारा लेता है अपने दोस्तों से बदला लेने का जो उनकी छोटी-सी दुनिया में ताक़त के रिश्ते को उसके पक्ष में पलटती हैं।
प्रेमचंद ग़रीब हामिद का पूरा साथ देते हैं। कुल जमा तीन पैसे हैं उसके पास और उसके दोस्त, जोकि ख़ुद कोई धन्ना सेठों की औलाद नहीं हैं, लेकिन हामिद से बीस ज़रूर पड़ते हैं। ईद का मेला है। फिरकी है, चक्कर हैं, मिठाइयाँ हैं, खिलौने हैं! बच्चों के जी ललचाने को कितना सामान!
तरह-तरह के खिलौने हैं—सिपाही और गुजरिया, राज और वकील, भिश्ती और धोबिन और साधु। वाह! कितने सुन्दर खिलौने हैं। अब बोला ही चाहते हैं। महमूद सिपाही लेता है, खाकी वर्दी और लाल पगड़ीवाला, कंधे पर बंदूक़ रखे हुए, मालूम होता है, अभी कवायद किए चला आ रहा है। मोहसिन को भिश्ती पसंद आया। कमर झुकी हुई है, ऊपर मशक रखे हुए हैं, मशक का मुँह एक हाथ से पकड़े हुए है। कितना प्रसन्न है! शायद कोई गीत गा रहा है। बस, मशक से पानी उड़ेला ही चाहता है। नूरे को वकील से प्रेम है। कैसी विद्वत्ता है उसके मुख पर! काला चोगा, नीचे सफेद अचकन, अचकन के सामने की जेब में घड़ी, सुनहरी जंजीर, एक हाथ में क़ानून का पोथा लिये हुए। मालूम होता है, अभी किसी अदालत से जिरह या बहस किए चले आ रहे हैं। यह सब दो-दो पैसे के खिलौने हैं।
लेकिन हामिद अपने तीन पैसों से क्या करे और क्या न करे! उसके दोस्त चक्कर खाते वक़्त, मिठाई खाते हुए उसे चिढ़ाते हैं। आख़िर वे भी बच्चे ही हैं! कुछ देर बाद लोहे और गिलट के सामानों की दुकानें आती हैं और हामिद रुक जाता है। लोहे का चिमटा उसे अपनी ओर खींचता है। जो तर्क-वितर्क उसके मन में चलता है, वह अपनी इस हीन स्थिति को अपने पक्ष में पलट देने का है,
“कई चिमटे रखे हुए थे। उसे ख्याल आया, दादी के पास चिमटा नहीं है। तवे से रोटियाँ उतारती हैं, तो हाथ जल जाता है। अगर वह चिमटा ले जाकर दादी को दे दे तो वह कितना प्रसन्न होगी! फिर उनकी ऊँगलियाँ कभी न जलेंगी। घर में एक काम की चीज हो जाएगी। खिलौने से क्या फ़ायदा व्यर्थ में पैसे ख़राब होते हैं। जरा देर ही तो खुशी होती है। फिर तो खिलौने को कोई आँख उठाकर नहीं देखता। ये तो घर पहुँचते-पहुँचते टूट-फूट बराबर हो जाएँगे। चिमटा कितने काम की चीज है। रोटियाँ तवे से उतार लो, चूल्हें में सेंक लो। कोई आग माँगने आये तो चटपट चूल्हे से आग निकालकर उसे दे दो। अम्मां बेचारी को कहाँ फुरसत है कि बाज़ार आएँ और इतने पैसे ही कहाँ मिलते हैं रोज हाथ जला लेती हैं।
हामिद के साथी आगे बढ़ गए हैं। सबील पर सबके सब शर्बत पी रहे हैं। देखो, सब कितने लालची हैं। इतनी मिठाइयाँ लीं, मुझे किसी ने एक भी न दी। उस पर कहते हैं, मेरे साथ खेलो। मेरा यह काम करो। अब अगर किसी ने कोई काम करने को कहा, तो पूछूँगा। खाएँ मिठाइयाँ, आप मुँह सड़ेगा, फोड़े-फुन्सियाँ निकलेंगी, आप ही जबान चटोरी हो जाएगी। तब घर से पैसे चुराएँगे और मार खाएँगे। किताब में झूठी बातें थोड़े ही लिखी हैं। मेरी जबान क्यों खराब होगी अम्माँ चिमटा देखते ही दौड़कर मेरे हाथ से ले लेंगी और कहेंगी—मेरा बच्चा अम्माँ के लिए चिमटा लाया है। कितना अच्छा लड़का है। इन लोगों के खिलौने पर कौन इन्हें दुआएँ देगा बड़ों की दुआएँ सीधे अल्लाह के दरबार में पहुँचती हैं, और तुरंत सुनी जाती हैं। मैं भी इनसे मिजाज क्यों सहूँ मैं ग़रीब सही, किसी से कुछ माँगने तो नहीं जाते। आखिर अब्बाजान कभी न कभी आएँगे। अम्मा भी आएँगी ही। फिर इन लोगों से पूछूँगा, कितने खिलौने लोगे एक-एक को टोकरियों में खिलौने दूँ और दिखा दूँ कि दोस्तों के साथ इस तरह का सलूक किया जाता है। यह नहीं कि एक पैसे की रेवड़ियाँ लीं, तो चिढ़ा-चिढ़ाकर खाने लगे। सबके सब हँसेंगे कि हामिद ने चिमटा लिया है। हँसें! मेरी बला से!”
बालपन और वयस्कता
हामिद के मन में खींच-तान है। खिलौने उसे खींच रहे हैं, मिठाई लुभा रही है लेकिन वह एक आख़िरी जीत हासिल करना चाहता है। चिमटे के पक्ष में उसके तर्क वयस्क हैं। बाल मनोविज्ञान के जानकार इन्हें अस्वाभाविक मानेंगे। लेकिन यह बचपन की उस समझ का नतीजा है जो नहीं देखता कि बचपन हमेशा वयस्कता के साथ साथ पलता है। वयस्कता और बालपन के बीच इतनी बड़ी दूरी भी नहीं होती। हर बच्चा एक स्तर पर वयस्क होता है। बस बड़े इसे देखना नहीं चाहते।
हामिद जितना अपनी दादी के लिए चिमटा नहीं ले रहा, उतना अपने लिए दुआओं का इंतज़ाम कर रहा है। यह निःस्वार्थ सौदा नहीं है। हामिद को भी कुछ मिलना है, बल्कि उसी को इस सौदे के बदले सब कुछ मिलना है। दादी की दुआ से अब्बाजान और अम्माँ लौट आएँगी। फिर सबसे बदला लिया जाएगा।
चिमटे की ख़रीद बड़ी अटपटी-सी है और दिलफ़रेब खिलौनों के मालिकों के लिए मज़ाक की चीज़। लेकिन हामिद अपने चिमटे को सबका सरदार साबित कर ही डालता है। हामिद और उसके दोस्तों का यह संवाद हिंदी कथा साहित्य के कुछ नगीनों में से एक है जिसकी चमक कभी मद्धम नहीं पड़ेगी:
“हामिद ने उसे इस तरह कंधे पर रखा, मानो बंदूक़ है और शान से अकड़ता हुआ संगियों के पास आया। जरा सुनें, सबके सब क्या-क्या आलोचनाएँ करते हैं!
मोहसिन ने हँसकर कहा—यह चिमटा क्यों लाया पगले, इसे क्या करेगा
हामिद ने चिमटे को ज़मीन पर पटकर कहा—जरा अपना भिश्ती ज़मीन पर गिरा दो। सारी पसलियाँ चूर-चूर हो जाएँ बचा की।
महमूद बोला—तो यह चिमटा कोई खिलौना है
हामिद—खिलौना क्यों नही है! अभी कन्धे पर रखा, बंदूक़ हो गई। हाथ में ले लिया, फकीरों का चिमटा हो गया। चाहूँ तो इससे मजीरे का काम ले सकता हूँ। एक चिमटा जमा दूँ, तो तुम लोगों के सारे खिलौनों की जान निकल जाए। तुम्हारे खिलौने कितना ही जोर लगाएँ, मेरे चिमटे का बाल भी बाँका नहीं कर सकते। मेरा बहादुर शेर है चिमटा।
सम्मी ने खँजरी ली थी। प्रभावित होकर बोला—मेरी खँजरी से बदलोगे दो आने की है।
हामिद ने खँजरी की ओर उपेक्षा से देखा-मेरा चिमटा चाहे तो तुम्हारी खँजरी का पेट फाड़ डाले। बस, एक चमड़े की झिल्ली लगा दी, ढब-ढब बोलने लगी। जरा-सा पानी लग जाए तो ख़त्म हो जाए। मेरा बहादुर चिमटा आग में, पानी में, आँधी में, तूफान में बराबर डटा खड़ा रहेगा।
चिमटे ने सभी को मोहित कर लिया; लेकिन अब पैसे किसके पास धरे हैं फिर मेले से दूर निकल आए हैं, नौ कब के बज गए, धूप तेज हो रही है। घर पहुँचने की जल्दी हो रही है। बाप से जिद भी करें, तो चिमटा नहीं मिल सकता। हामिद है बड़ा चालाक। इसीलिए बदमाश ने अपने पैसे बचा रखे थे।
अब बालकों के दो दल हो गए हैं। मोहसिन, महमूद, सम्मी और नूरे एक तरफ हैं, हामिद अकेला दूसरी तरफ। शास्त्रार्थ हो रहा है। सम्मी तो विधर्मी हो गया। दूसरे पक्ष से जा मिला, लेकिन मोहसिन, महमूद और नूरे भी हामिद से एक-एक, दो-दो साल बड़े होने पर भी हामिद के आघातों से आतंकित हो उठे हैं। उसके पास न्याय का बल है और नीति की शक्ति। एक ओर मिट्टी है, दूसरी ओर लोहा, जो इस वक़्त अपने को फौलाद कह रहा है। वह अजेय है, घातक है। अगर कोई शेर आ जाए मियाँ भिश्ती के छक्के छूट जाएँ, जो मियाँ सिपाही मिट्टी की बंदूक़ छोड़कर भागे, वकील साहब की नानी मर जाए, चोगे में मुँह छिपाकर ज़मीन पर लेट जाएँ। मगर यह चिमटा, यह बहादुर, यह रुस्तमे-हिंद लपककर शेर की गरदन पर सवार हो जाएगा और उसकी आँखें निकाल लेगा।
मोहसिन ने एड़ी—चोटी का ज़ोर लगाकर कहा—अच्छा, पानी तो नहीं भर सकता
हामिद ने चिमटे को सीधा खड़ा करके कहा—भिश्ती को एक डाँट बताएगा, तो दौड़ा हुआ पानी लाकर उसके द्वार पर छिड़कने लगेगा।
मोहसिन परास्त हो गया, पर महमूद ने कुमुक पहुँचाई—अगर बचा पकड़ जाएँ तो अदालत में बँधे-बँधे फिरेंगे। तब तो वकील साहब के पैरों पड़ेंगे।
हामिद इस प्रबल तर्क का जवाब न दे सका। उसने पूछा—हमें पकड़ने कौन आएगा
नूरे ने अकड़कर कहा—यह सिपाही बंदूकवाला।
हामिद ने मुँह चिढ़ाकर कहा—यह बेचारे हम बहादुर रुस्तमे—हिंद को पकड़ेंगे। अच्छा लाओ, अभी जरा कुश्ती हो जाए। इसकी सूरत देखकर दूर से भागेंगे। पकड़ेंगे क्या बेचारे!
मोहसिन को एक नई चोट सूझ गई—तुम्हारे चिमटे का मुँह रोज़ आग में जलेगा।
उसने समझा था कि हामिद लाजवाब हो जाएगा, लेकिन यह बात न हुई। हामिद ने तुरंत जवाब दिया—आग में बहादुर ही कूदते हैं जनाब, तुम्हारे यह वकील, सिपाही और भिश्ती लौंडियों की तरह घर में घुस जाएँगे। आग में कूदना वह काम है, जो यह रुस्तमे-हिन्द ही कर सकता है।
महमूद ने एक जोर लगाया—वकील साहब कुरसी—मेज पर बैठेंगे, तुम्हारा चिमटा तो बावरचीखाने में जमीन पर पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है
इस तर्क ने सम्मी और नूरे को भी सजीव कर दिया! कितने ठिकाने की बात कही है पट्ठे ने! चिमटा बावरचीखाने में पड़ा रहने के सिवा और क्या कर सकता है।
हामिद को कोई फड़कता हुआ जवाब न सूझा, तो उसने धाँधली शुरू की—मेरा चिमटा बावरचीखाने में नहीं रहेगा। वकील साहब कुर्सी पर बैठेंगे, तो जाकर उन्हें जमीन पर पटक देगा और उनका क़ानून उनके पेट में डाल देगा।”
मुदित प्रेमचंद
लेखक दृश्य रच भी रहा है और ख़ुद उसमें आनंद भी ले रहा है। इन वाक्यों पर ध्यान दीजिए और देखिए प्रेमचंद अपने इस बाल मित्रों के बीच कितने मुदित हैं,
“शास्त्रार्थ हो रहा है। सम्मी तो विधर्मी हो गया! दूसरे पक्ष से जा मिला…..
मोहसिन, महमूद और नूरे भी हामिद से एक-एक, दो-दो साल बड़े होने पर भी हामिद के आघातों से आतंकित हो उठे हैं। उसके पास न्याय का बल है और नीति की शक्ति। एक ओर मिट्टी है, दूसरी ओर लोहा, जो इस वक़्त अपने को फौलाद कह रहा है। वह अजेय है, घातक है।”
‘महमूद ने कुमुक पहुँचाई’’, मोहसिन को एक नई चोट सूझ गई’, ‘महमूद ने एक ज़ोर लगाया’, और अंत में हामिद की ‘धाँधली’।
महमूद के तर्क का कोई जवाब न था। चिमटे की जगह तो बावरचीख़ाने का कोना ही है! और यह कहना कि वह वकील साहब को ज़मीन पर पटक देगा, कोई तर्क न हुआ! न हुआ करे, बाक़ियों को लाजवाब तो इसने कर दिया!
“बात कुछ बनी नहीं। खासी गाली-गलौज थी, लेकिन क़ानून को पेट में डालनेवाली बात छा गई। ऐसी छा गई कि तीनों सूरमा मुँह ताकते रह गए मानो कोई धेलचा कानकौआ किसी गंडेवाले कनकौए को काट गया हो। क़ानून मुँह से बाहर निकलने वाली चीज है। उसको पेट के अन्दर डाल दिया जाना बेतुकी-सी बात होने पर भी कुछ नयापन रखती है। हामिद ने मैदान मार लिया। उसका चिमटा रुस्तमे-हिन्द है। अब इसमें मोहसिन, महमूद नूरे, सम्मी किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकती।”
चिमटे की सरदारी
हामिद ने मैदान सर कर लिया है। सभी कुछ देर के लिए चिमटे से अपने-अपने खिलौने बदलना चाहते हैं:
“चिमटा बारी-बारी से सबके हाथ में गया, और उनके खिलौने बारी-बारी से हामिद के हाथ में आए। कितने ख़ूबसूरत खिलौने हैं।
हामिद ने हारने वालों के आँसू पोंछे—मैं तुम्हें चिढ़ा रहा था, सच! यह चिमटा भला, इन खिलौनों की क्या बराबर करेगा, मालूम होता है, अब बोले, अब बोले।
लेकिन मोहसिन की पार्टी को इस दिलासे से संतोष नहीं होता। चिमटे का सिक्का ख़ूब बैठ गया है। चिपका हुआ टिकट अब पानी से नहीं छूट रहा है।”
‘कितने ख़ूबसूरत खिलौने हैं।’ ऐसा न हो कि आपका ध्यान हामिद के मन में बोले गए इस वाक्य पर न जाए!
इस कहानी के कुछ पाठकों का कहना है कि प्रेमचंद यह भूल गए कि हामिद के दोस्त भी बच्चे ही हैं आख़िर। हामिद के चिमटे की सरदारी तो साबित हो गई थी। आगे हर बच्चे के खिलौने को फ़ौरन ही तुड़वाकर क्यों वे हामिद के फ़ैसले को सही साबित कर रहे हैं चाहिए तो हामिद को भी खिलौना ही था न
“ग्यारह बजे गाँव में हलचल मच गई। मेलेवाले आ गए। मोहसिन की छोटी बहन ने दौड़कर भिश्ती उसके हाथ से छीन लिया और मारे खुशी के जा उछली, तो मियाँ भिश्ती नीचे आ रहे और सुरलोक सिधारे। इस पर भाई-बहन में मार-पीट हुई। दोनों ख़ूब रोए। उसकी अम्माँ यह शोर सुनकर बिगड़ी और दोनों को ऊपर से दो-दो चाँटे और लगाए।
मियाँ नूरे के वकील का अंत उनके प्रतिष्ठानुकूल इससे ज़्यादा गौरवमय हुआ। वकील ज़मीन पर या ताक पर हो नहीं बैठ सकता। उसकी मर्यादा का विचार तो करना ही होगा। दीवार में खूँटियाँ गाड़ी गईं। उन पर लकड़ी का एक पटरा रखा गया। पटरे पर कागज का कालीन बिछाया गया। वकील साहब राजा भोज की भाँति सिंहासन पर विराजे। नूरे ने उन्हें पंखा झलना शुरू किया। आदालतों में खर की टट्टियाँ और बिजली के पंखे रहते हें। क्या यहाँ मामूली पंखा भी न हो! क़ानून की गर्मी दिमाग़ पर चढ़ जाएगी कि नहीं बाँस का पंखा आया और नूरे हवा करने लगे मालूम नहीं, पंखे की हवा से या पंखे की चोट से वकील साहब स्वर्गलोक से मृत्युलोक में आ रहे और उनका माटी का चोला माटी में मिल गया! फिर बड़े जोर-शोर से मातम हुआ और वकील साहब की अस्थि घूरे पर डाल दी गई।
अब रहा महमूद का सिपाही। उसे चटपट गाँव का पहरा देने का चार्ज मिल गया, लेकिन पुलिस का सिपाही कोई साधारण व्यक्ति तो नहीं, जो अपने पैरों चले वह पालकी पर चलेगा। एक टोकरी आई, उसमें कुछ लाल रंग के फटे-पुराने चिथड़े बिछाए गए जिसमें सिपाही साहब आराम से लेटे। नूरे ने यह टोकरी उठाई और अपने द्वार का चक्कर लगाने लगे। उनके दोनों छोटे भाई सिपाही की तरह ‘छोनेवाले, जागते लहो’ पुकारते चलते हैं। मगर रात तो अँधेरी होनी चाहिए, नूरे को ठोकर लग जाती है। टोकरी उसके हाथ से छूटकर गिर पड़ती है और मियाँ सिपाही अपनी बन्दूक़ लिये ज़मीन पर आ जाते हैं और उनकी एक टाँग में विकार आ जाता है।
महमूद को आज ज्ञात हुआ कि वह अच्छा डॉक्टर है। उसको ऐसा मरहम मिला गया है जिससे वह टूटी टाँग को आनन-फानन जोड़ सकता है। केवल गूलर का दूध चाहिए। गूलर का दूध आता है। टाँग जोड़ दी जाती है। लेकिन सिपाही को ज्यों ही खड़ा किया जाता है, टाँग जवाब दे देती है। शल्य-क्रिया असफल हुई, तब उसकी दूसरी टाँग भी तोड़ दी जाती है। अब कम-से-कम एक जगह आराम से बैठ तो सकता है। एक टाँग से तो न चल सकता था, न बैठ सकता था। अब वह सिपाही संन्यासी हो गया है। अपनी जगह पर बैठा-बैठा पहरा देता है। कभी-कभी देवता भी बन जाता है। उसके सिर का झालरदार साफा खुरच दिया गया है। अब उसका जितना रूपांतर चाहो, कर सकते हो। कभी-कभी तो उससे बाट का काम भी लिया जाता है।”
जैसे हामिद का आख़िरी तर्क लेखक को भी हुज्जत मालूम हुआ, हममें से कुछ इस राय से सहमत होंगे कि इतनी जल्दी सारे खिलौनों को शहीद करके लेखक ने बाक़ी बच्चों के साथ कुछ ज़्यादती की है!
ज़ुबान के साथ मोहब्बत
‘ईदगाह’ ज़ुबान के साथ प्रेमचंद की मोहब्बत की कहानी भी है। यह भाषा एक खुली हुई तबीयतवाला ही लिख सकता है। यह कहानी लेकिन दूसरी वजहों से भी हिंदी कथा साहित्य में अपनी ख़ास जगह रखती है। एक तो इसलिए कि ईद का वर्णन इतने प्यार से, और सच्चे प्यार से और कहीं शायद ही मिले। कहानी शुरू यों होती है,
“रमजान के पूरे तीस रोजों के बाद ईद आयी है। कितना मनोहर, कितना सुहावना प्रभाव है। वृक्षों पर अजीब हरियाली है, खेतों में कुछ अजीब रौनक है, आसमान पर कुछ अजीब लालिमा है। आज का सूर्य देखो, कितना प्यारा, कितना शीतल है, मानो संसार को ईद की बधाई दे रहा है। गाँव में कितनी हलचल है। ईदगाह जाने की तैयारियाँ हो रही हैं। किसी के कुरते में बटन नहीं है, पड़ोस के घर में सुई-धागा लेने दौड़ा जा रहा है। किसी के जूते कड़े हो गए हैं, उनमें तेल डालने के लिए तेली के घर पर भागा जाता है। जल्दी-जल्दी बैलों को सानी-पानी दे दें। ईदगाह से लौटते-लौटते दोपहर हो जाएगी। तीन कोस का पैदल रास्ता, फिर सैकड़ों आदमियों से मिलना-भेंटना, दोपहर के पहले लौटना असम्भव है। लड़के सबसे ज़्यादा प्रसन्न हैं। किसी ने एक रोजा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की खुशी उनके हिस्से की चीज है। रोजे बड़े-बूढ़ों के लिए होंगे। इनके लिए तो ईद है। रोज ईद का नाम रटते थे, आज वह आ गई। अब जल्दी पड़ी है कि लोग ईदगाह क्यों नहीं चलते।”
ईद के रोज़ का सूरज कुछ अलग है, कितना प्यारा, कितना शीतल, सारे संसार की ईद की मुबारकबाद देता हुआ। ईद ज़ाहिर है, मुसलमानों का त्योहार है, लेकिन उसके उल्लास की रौशनी से सारा ब्रह्मांड नहाया हुआ है।
ईद माननेवाले क्या सिर्फ़ मुसलमान हैं वे साथ-साथ ग़रीब भी हैं, किसान भी:
किसी के कुरते में बटन में बटन नहीं है, किसी के जूते कड़े हो गए हैं, बैलों को जल्दी-जल्दी सानी-पानी भी तो देना है! ईद की धार्मिकता से इंकार नहीं, लेकिन ईद पर तो हक़ सबका है,
“किसी ने एक रोज़ा रखा है, वह भी दोपहर तक, किसी ने वह भी नहीं, लेकिन ईदगाह जाने की ख़ुशी उनके हिस्से की चीज़ है।”
इस अंश को पढ़ते समय आप अनुभव कर सकते हैं कि यह भाषा सांस्कृतिक रूप से निश्चिंत शख़्स ही लिख सकता है। यहाँ कोई तनाव नहीं है, किसी के सामने कुछ साबित करने की व्यग्रता नहीं है।
सांस्कृतिक निश्चिंतता और आदर
सांस्कृतिक निश्चिंतता के साथ निगाह की दूसरी ख़ासियत है सांस्कृतिक आदर की, या प्रेम की भी। सांस्कृतिक उदारता से आगे की अवस्था है यह। बिना इसके ईद की नमाज़ का यह वर्णन सम्भव न था:
“सहसा ईदगाह नजर आई। ऊपर इमली के घने वृक्षों की छाया। नीचे पक्का फर्श है, जिस पर जाजम बिछा हुआ है। और रोजेदारों की पंक्तियाँ एक के पीछे एक न जाने कहाँ तक चली गई हैं, पक्की जगत के नीचे तक, जहाँ जाजम भी नहीं है। नए आने वाले आकर पीछे की कतार में खड़े हो जाते हैं। आगे जगह नहीं है। यहाँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं। इन ग्रामीणों ने भी वजू किया और पिछली पंक्ति में खड़े हो गए। कितना सुन्दर संचालन है, कितनी सुन्दर व्यवस्था! लाखों सिर एक साथ सिजदे में झुक जाते हैं, फिर सबके सब एक साथ खड़े हो जाते हैं, एक साथ झुकते हैं और एक साथ घुटनों के बल बैठ जाते हैं। कई बार यही क्रिया होती है, जैसे बिजली की लाखों बत्तियाँ एक साथ प्रदीप्त हों और एक साथ बुझ जाएँ, और यही क्रम चलता रहे। कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएँ, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं, मानो भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए है।”
क्या प्रेमचंद को नहीं मालूम कि मुसलमानों में भी ऊँच नीच है, कि उनमें भी जातिभेद और वर्गभेद है! लेकिन अभी वे ईद की इस नमाज़ का यह नजारा देखकर विभोर हैं, अभी जैसे खुद उनकी आत्मा इस्लाम के मूल आध्यात्मिक संदेश से रौशन हो रही है, “यहाँ कोई धन और पद नहीं देखता। इस्लाम की निगाह में सब बराबर हैं।”
ईद की नमाज़ के इस वर्णन का जोड़ खोजे नहीं मिलेगा। यह इस्लाम की जितनी तारीफ़ नहीं है, उतनी इस नमाज़ को निहार रही निगाह की है! पिछले 4 वर्षों में मुझे यह हिस्सा बार-बार याद आया है, जब भी मैंने सामूहिक नमाज पर हमले की ख़बर पढ़ी है। हर बार मैंने ‘ईदगाह’ के पन्ने पलटते हुए अपने इस पुरखे से माफ़ी माँगी है: हम तुम्हारे लायक़ नहीं हो सके!
ऐसा नहीं कि मुसलमानों की आलोचना हो ही नहीं। है और होगी। प्रेमचंद ही करेंगे। लेकिन अभी तो इस दृश्य ने मानो देखनेवाले को भी कितना ऊँचा उठा दिया है। प्रेमचंद भूल गए हैं कि ईदगाह में कितने लोग हैं। हृदय की विशालता संख्या में भी अतिशयोक्ति कर डालती है। प्रेमचंद को “लाखों सर” झुकते और उठते दीखते हैं: “कितना अपूर्व दृश्य था, जिसकी सामूहिक क्रियाएँ, विस्तार और अनंतता हृदय को श्रद्धा, गर्व और आत्मानंद से भर देती थीं, मानो भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए है।“
एक मजहब के अनुयायियों के मन की यह श्रद्धा, यह गर्व और यह आत्मानंद क्या सिर्फ़ उन्हीं तक महदूद रहे जो यह देख रहा है और देखकर सोच रहा है “मानों भ्रातृत्व का एक सूत्र इन समस्त आत्माओं को एक लड़ी में पिरोए हुए है।”
वह क्या ख़ुद को इस लड़ी की एक कड़ी नहीं मानता उसके लिए क्या मुसलमान होना ज़रूरी होगा