एससी, एसटी व ओबीसी के साथ धोखा कर रही है मोदी सरकार
आरएसएस-बीजेपी की सोच देश हित में नहीं है। जब भारत आज़ाद हुआ तब एससी-एसटी-ओबीसी समुदाय के लोग न तो संविधान सभा में प्रभावी थे और न ही मंत्रिमंडल में। ओबीसी वर्ग तो बना ही नहीं था। इनकी आवाज़ें जवाहरलाल नेहरू, महात्मा गाँधी, सरदार बल्लभ भाई पटेल, पंजाब राव देशमुख जैसे लोग उठाया करते थे, जो लंदन या अमेरिका से पढ़कर लौटे थे और बहुत संपन्न परिवारों से थे। उन्हें देश की चिंता थी और इस पर गंभीरता से विचार करते थे कि देश में एक बड़ी आबादी शासन-सत्ता और सुख-सुविधाओं से वंचित क्यों रह गई।
चालाकियों के फेर में मोदी सरकार के गले की हड्डी बना आरक्षण
सवर्ण तुष्टिकरण कर रही बीजेपी
अब स्थिति बदल गई है। सत्तासीन दल सवर्ण तुष्टिकरण में लगा है। मक़सद साफ़ है कि अगर सवर्ण तबक़ा बीजेपी के पक्ष में रहता है तो वह जनमत को आसानी से बीजेपी के पक्ष में मोड़ सकता है। आरक्षित तबके़ के लोग आज भी स्वतंत्र सोच के नहीं हो पाए हैं। वे अपनी रोजी-रोटी में लगे रहते हैं या उसके लिए संघर्ष कर रहे होते हैं और सवर्ण तबक़ा आसानी से उन्हें देशभक्ति का गीत गाने को कहकर बीजेपी की ओर मोड़ सकता है।
- इन दिनों विश्वविद्यालयों में शिक्षकों की भर्ती में रोस्टर को लेकर चर्चा है। वहीं, ग़ैर शिक्षक कर्मचारियों की भर्ती में भी विश्वविद्यालयों में कोई आरक्षण लागू नहीं है। वहाँ भी आरक्षित वर्गों का प्रतिनिधित्व नहीं के बराबर है। जिसमें लाइब्रेरी से लेकर कार्यालयों व प्रशासनिक भवन के कर्मचारी शामिल होते हैं।
केंद्र का दावा, महज दिखावा
लोकसभा में 11 फ़रवरी 2019 को सतना के सांसद गणेश सिंह की ओर से पूछे गए सवाल के जवाब में मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावडेकर ने कहा कि भारत सरकार आरक्षण के पूरे पक्ष में है। यह सामाजिक न्याय देगी और इसीलिए इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जो निर्णय दिया और बाद में सुप्रीम कोर्ट ने भी उसे बरक़रार रखा, वह हमें मंजूर नहीं है। इसलिए हमने स्पेशल लीव पिटीशन दायर की। वह खारिज हो गई। अब रिव्यू पिटीशन डाल रहे हैं, लेकिन रिव्यू पिटीशन अगर खारिज हो जाती है तो अध्यादेश के दरवाजे खुले हैं। हम आरक्षण बचाएँगे और ज़रूरत पड़ने पर अध्यादेश भी लाएँगे।
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संसद में दी गई सूचना के मुताबिक़, 40 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में स्वीकृत शिक्षण पदों की संख्या 17,092 बताई गई है। इसमें से 5,606 पद रिक्त हैं। पुरानी आईआईटी में 2,000 से ऊपर पद खाली हैं। तदर्थ नियुक्तियों की संख्या 10 प्रतिशत से ज़्यादा नहीं हो सकती है।
एचडी देवेगौड़ा के प्रधानमंत्री रहते हुए जब केंद्र सरकार की ओर से विश्वविद्यालयों पर दबाव बनाया गया तो ज़्यादातर विश्वविद्यालयों की परिषदों ने आरक्षण को मंजूरी दे दी। उसके बाद 2005 में 200 प्वाइंट रोस्टर का प्रावधान लागू होने के बाद विश्वविद्यालयों में भर्तियाँ क़रीब-क़रीब रोक दी गईं।
200 प्वाइंट रोस्टर को किया खारिज
भर्तियाँ तब निकलनी शुरू हुईं जब बीजेपी सरकार सत्ता में आई और इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने 200 प्वाइंट रोस्टर को मूल अधिकार विरोधी बताते हुए उसे खारिज कर दिया। उसके बाद यूजीसी ने नई नियमावली जारी की और धड़ाधड़ भर्तियाँ शुरू कर दीं। 7 अप्रैल को इलाहाबाद उच्च न्यायालय का फै़सला आने के एक महीने के भीतर यूजीसी ने नई अधिसूचना जारी कर दी और किसी को इसका पता भी नहीं चला।
23 अक्टूबर 2017 को अंग्रेजी अख़बार इंडियन एक्सप्रेस में ख़बर छपी, तब हंगामा हुआ और केंद्र सरकार ने उच्चतम न्यायालय में स्पेशल लीव पिटीशन दायर की। उच्चतम न्यायालय ने उसे सुनने में साल बिता दिया और 22 जनवरी 2019 के फ़ैसले में कोर्ट ने सरकार की याचिका को सुनने योग्य न समझते हुए खारिज कर दिया।
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विधवा विलाप कर रही केंद्र सरकार
अब सरकार आख़िर वंचितों के लिए विधवा विलाप कर रिव्यू पिटीशन क्यों दायर करना चाहती है आंकड़ों से साफ़ दिख रहा है कि टीचिंग से लेकर नॉन-टीचिंग स्टाफ़ तक कहीं भी संविधान द्वारा तय 49.9 प्रतिशत आरक्षण लागू नहीं है।
सतना से सांसद गणेश सिंह ने एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया कि विश्वविद्यालयों में ग़ैर शिक्षण कर्मचारियों में भी केवल 8.96 प्रतिशत एससी, 4.25 प्रतिशत एसटी और 10.17 प्रतिशत ओबीसी हैं।
नॉन टीचिंग स्टाफ़ को आरक्षण क्यों नहीं
रोस्टर चाहे 13 प्वाइंट हो या 200 प्वाइंट, वह सिर्फ़ टीचिंग स्टाफ़ पर ही लागू होता है। ऐसे में विश्वविद्यालयों में जो नॉन-टीचिंग स्टाफ़ है, क्या वहाँ 49.9 प्रतिशत आरक्षण लागू न होना चिंता का विषय नहीं है क्या क्लास 3 और क्लास 4 का स्टाफ़ बगैर किसी आरक्षण के भर्ती होता रहेगा और उसके लिए कोई अलग आंदोलन करना पड़ेगा
स्वायत्तता के नाम पर बेइमानियों के अड्डे बन गए विश्वविद्यालय
नीयत पर उठेंगे ही सवाल
केंद्र सरकार की नीयत पर बार-बार सवाल उठता है। अब लोकसभा चुनाव होने और नई सरकार के गठन में महज 3-4 महीने बचे हैं। गिने-चुने दिनों में चुनाव आयोग अधिसूचना जारी कर सकता है। अधिसूचना के साथ ही आदर्श आचार संहिता लागू हो जाएगी और सरकार को कोई ऐसा फ़ैसला करने का अधिकार नहीं होगा, जिससे कि मतदाता प्रभावित हों।
सरकार की मंशा साफ़ है। सुप्रीम कोर्ट में स्पेशल लीव पिटीशन डालकर वह रोस्टर मसले को करीब डेढ़ साल तक फंसाए रही। अब रिव्यू पिटीशन डालकर मामले को और लंबे समय तक फंसाए रखना चाहती है, जिससे कि किसी तरह चुनाव निकल जाए।
कब दायर होगी रिव्यू पिटीशन
सरकार विश्वविद्यालयों से लेकर सड़क तक चल रहे आंदोलनों के दबाव में है, लेकिन आचार संहिता लागू होने तक का समय वह यह कहने में काट देना चाहती है कि सरकार वंचितों की हितैषी है और रिव्यू पिटीशन दायर करने जा रही है।
अब तक रिव्यू पिटीशन भी दायर नहीं हुई है, अध्यादेश लाना तो दूर की कौड़ी है। जब सरकार को 10 प्रतिशत सवर्ण आरक्षण देना था तो उसने महज 72 घंटे में मूल अधिकार बदल दिया और संविधान में संशोधन कर उसे लागू करा दिया। न्यायालय ने भी अतिशय सक्रिय होते हुए कह दिया कि हम उस पर कोई स्टे नहीं देने जा रहे हैं।
बीजेपी शासित राज्यों ने अपने राज्यों में विद्युत गति से सवर्ण आरक्षण लागू कर दिया। वहीं, वीपी सिंह द्वारा मंडल कमीशन रिपोर्ट लागू कर ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण देने की घोषणा के बाद भी तमाम राज्यों में 27 प्रतिशत कोटा लागू नहीं है।
ढंग से लागू नहीं हुआ ओबीसी आरक्षण
अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड, त्रिपुरा, लक्षद्वीप में ओबीसी चिह्नित ही नहीं किए गए और वहाँ ओबीसी आरक्षण लागू नहीं है। ओबीसी को छत्तीसगढ़ में 14 प्रतिशत, हरियाणा में क्लास 1 व और क्लास 2 सेवाओं में 10 प्रतिशत, हिमाचल प्रदेश में क्लास 1 और क्लास 2 सेवाओं में 12 प्रतिशत, झारखंड में 14 प्रतिशत, मध्य प्रदेश में 14 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 21 प्रतिशत, मणिपुर में 17 प्रतिशत, पंजाब में नौकरियों में 12 प्रतिशत और शैक्षणिक संस्थानों में 5 प्रतिशत, राजस्थान में 21 प्रतिशत, सिक्किम में 21 प्रतिशत, उत्तराखंड में 14 प्रतिशत, दादरा और नागर हवेली में 5 प्रतिशत ही आरक्षण मिलता है। कुल मिलाकर देखें तो सिर्फ़ उन्हीं राज्यों में ओबीसी को 27 प्रतिशत आरक्षण मिल रहा है, जहाँ ओबीसी नेता प्रभावी रहे हैं या सत्ता में रहे हैं।
सरकार की बेइमानी की एक वजह यह भी हो सकती है कि वह केंद्रीय विश्वविद्यालयों और आईआईटी, आईआईएम में तो भर्तियाँ रोक रही है, लेकिन राज्यों के स्वायत्त विश्वविद्यालयों के कुलाधिपति राज्यपाल होते हैं। ऐसे में वह केंद्र की एडवाइजरी या यूजीसी की एडवाइजरी मानने के लिए बाध्य नहीं हैं। ऐसे में बीजेपी शासित राज्य बड़े आराम से विश्वविद्यालयों में धड़ाधड़ भर्तियाँ कर सकते हैं।
पूरा हो 49.5 प्रतिशत कोटा
सरकार की नीयत अगर कहीं से भी साफ़ होती तो वह रिव्यू पिटीशन दायर करने या रोस्टर को लेकर अध्यादेश लाने से आगे जाकर सीधे-सीधे अध्यादेश जारी करती कि विश्वविद्यालयों में टीचिंग और नॉन टीचिंग स्टाफ़ की भर्ती में 49.5 प्रतिशत आरक्षण लागू किया जाए और जितने भी पद खाली हैं, उन्हें फटाफट भरकर एससी-एसटी-ओबीसी का 49.5 प्रतिशत कोटा पूरा करे।